ईरान और इजराइल के संबंधों पर Michael Bar-Zohar and Nissim Mishal की पुस्तक MOSSAD: The Greatest Mission Of The Israeli Secret Service खुफिया एजेंसियों के स्याह पक्ष की एक अनूठी दास्तां कहती है. तो सीधे चलते हैं उस कहानी की तरफ जो इन दोनों देशों के संबंधों को परत-दर-परत खोलकर आपके सामने रख रही है.
...इस बात की जानकारी छोड़िए, लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक समय ईरान और इज़राइल अच्छे दोस्त हुआ करते थे. लेकिन ये बात 1960 के दशक की है और सही है. ईरान में इस्लामी क्रांति के पहले वहां के शाह, रज़ा पहलवी ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की थी. यह कार्यक्रम शांतिपूर्ण और सैन्य उद्देश्य, दोनों के लिए था. इज़राइल को इससे कोई आपत्ति नहीं थी. लेकिन इस्लामिक क्रांति ने इज़राइल के रिश्तों और परमाणु कार्यक्रम, दोनों में 180 डिग्री का परिवर्तन ला दिया.
अयातुल्लाह खोमैनी और उनके अनुयायियों ने परमाणु कार्यक्रम को 'इस्लाम विरोधी' करार देते हुए बंद करवा दिया और इज़राइल से धार्मिक कारणों से दुश्मनी ले ली. धार्मिक कारणों से ही ईरान की दुश्मनी इराक़ से भी थी. 80 के दशक में दोनों के बीच युद्ध हुआ. इराक़ ने रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया तो अब ईरान के सामने भी प्रश्न खड़ा हो गया कि कैसे निपटा जाए? तो अयातुल्लाह खोमैनी के उत्तराधिकारी और वर्तमान सर्वोच्च धर्मगुरु अयातुल्लाह अली खोमैनी ने अपने वैज्ञानिकों से गैर-पारंपरिक हथियार विकसित करने के लिए कहा जिसमें परमाणु हथियारों का विकास भी शामिल था.
इसी समय सोवियत संघ टूट रहा था. यूरोपीय देशों को इस बात की भनक लगनी शुरु हो गई कि सोवियत संघ के बेरोजगार हुए न्यूक्लियर साइंटिस्टों से ईरान को तकनीक और कुछ सामग्री मिलनी शुरू हो गई. टूट चुके सोवियत संघ (रूस) में गायब हुए न्यूक्लियर साइंटिस्ट अचानक ईरान में मिलने लगे. यूरोपीय और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने इस बात का पता लगा लिया कि ईरान ने दो-तीन परमाणु सयंत्रों के निर्माण के लिए रूस और चीन के साथ गुप्त संधियां शुरू कर दी हैं.
जब ये समाचार सार्वजनिक हुए तो पश्चिमी देशों के दवाब के चलते चीन तो पीछे हट गया लेकिन रूस डटा रहा. हालांकि उसने इसमें थोड़ी देर करनी शुरू कर दी. अमेरिका और इज़राइल की खुफिया एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकने में ईरान यहां कामयाब हो गया.
पश्चिमी देश रूस और चीन पर निगाह बनाए हुए थे, तभी ईरान के वैज्ञानिक-विशेषज्ञ दुबई में जर्मन के कुछ वैज्ञानिकों और पाकिस्तान के डॉ अब्दुल कादिर खान के साथ मीटिंग करने में लगे थे. न्यूक्लियर प्रोग्राम पर चोरी-छिपे पाकिस्तान और ईरान ने जमकर एक-दूसरे का सहयोग किया. ईरान में अब परमाणु सयंत्रों का निर्माण शुरू होने लगा. सुरक्षा के लिहाज से उसने सब कुछ एक ही जगह नहीं रखा, बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों में उन्हें बिखेर दिया. जैसे एक प्लांट इस्फाहन, तो दूसरा अराक, सेंट्रीफ्यूज़ के लिए नंताज़ और चौथे के लिए क़ोम शहर को चुना गया. जैसे ही खुफिया एजेंसियों को तनिक भी भनक लगती, ईरान अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर सेंटर को पूरी तरह बंद कर देता और दूसरी जगह सेंटर खोल लेता.
IAEA को भी कोई सबूत नहीं मिलता. इसी सबके बीच 1998 में एक पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉ इस्फतिखार खान चौधरी ने अमेरिका में शरण मांगी. उसने पहली बार एकदम सही जानकारी अमेरिकी को दी कि कैसे ईरान और पाकिस्तान के बीच न्यूक्लियर कोऑपरेशन का खेल चल रहा है. अमेरिका ने इस जानकारी को इज़राइल से छिपाया. डॉ चौधरी द्वारा दी गई जानकारी को नष्ट कर दिया और उसे अपने यहां शरण दे दी. किताब के लेखकों ने इसका कारण नहीं बताया है लेकिन ये माना जा सकता है कि इस समय अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे थे. पाकिस्तान अमेरिका की कठपुतली हुआ करता था. तो अमेरिका ने इसी के चलते पाकिस्तान को बचाया होगा.
खैर... इसके चार साल बाद एक ईरानी विद्रोही ने ही पश्चिमी मीडिया के सामने खुलासा कर दिया कि नंताज़ और अराक में ईरान न्यूक्लियर तकनीक पर काम चल रहा है. इसके दो साल बाद पाकिस्तान के डॉ अब्दुल कादिर खान ने टीवी पर सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर लिया कि उन्होंने परमाणु हथियार बनाने की तकनीक और सेंट्रीफ्यूज़ लीबिया, उत्तर कोरिया और ईरान को बेचे हैं. इन सब सालों में अमेरिका की खुफिया एजेंसी ईरान से मिली जानकारी को इज़राइल से छिपाने की कोशिश करती, या इज़राइली मोसाद उसे कुछ जानकारी देती तो उस पर बेहद ठंडी प्रतिक्रिया देती. ऐसा क्यों था, यह अस्पष्ट है.
ईरान और इज़राइल में दुश्मनी बढ़ती ही जा रही थी. ईरान में इज़राइल को जड़ से मिटाने की कसमें खाई जाने लगीं. बच्चा-बच्चा इस्लाम के नाम मर-मिटने की बाते करने लगा. ऐसे में मोसाद के लिए सिर्फ सूचनाएं हासिल करना और अमेरिका के माध्यम से दुनिया को देना काफी नहीं था. पाकिस्तान के परमाणु बम को मुस्लिम देशों ने (काफ़िरों के खिलाफ) 'इस्लामी बम' करार दिया था. ऐसे में एक ओर इस्लामी बम के लिए दुनिया तैयार नहीं थी. दुनिया के लिए तो यह ख़तरा था ही, इज़राइल के लिए सबसे बड़ा खतरा था. इसे रोकना ही था. तो अब मोसाद ने खुद ही कुछ करने की ठानी. फिर शुरु हुआ खूनी खेल.
तीनों हवाई जहाजों में ईरानी रिवोल्यूशनरी गॉर्ड्स के अधिकारी और न्यूक्लियर साइंटिस्ट सवार थे. ईरानी अधिकारियों ने पहले तो इन दुर्घटनाओं के पीछ अलग-अलग कारण बताए, जैसे खराब मौसम या तकनीकी कमी, लेकिन बार-बार होने वाली इन घटनाओं से परेशान होकर आखिरकार सार्वजनिक तौर पर मान लिया कि ये पश्चिमी देशों की खुफियां एजेंसियों का काम है. दरअसल, ये काम इज़राइल की मोसाद कर रही थी.
और मोसाद को उस समय नेतृत्व दे रहे थे मीर डेगन. डेगन ने साफ-तौर पर अपनी सरकार से कह दिया था कि हर-हाल में ईरान को रोकना होगा और इसके लिए वो कुछ भी करेंगे.
अभी तक इज़राइल की सरकार ने मोसाद को व्यवस्थित नीति के तहत अधिकार दे रखे थे कि वो ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चौपट करने के लिए ऑपरेशन चलाए. लेकिन मई 2007 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यु बुश ने भी CIA को ऐसा करने का एक आदेश जारी कर दिया. अब CIA और मोसाद में सहयोग शुरू हुआ.
मोसाद इन सेंटर्स को नुकसान पहुंचाने के अलावा वैज्ञानिक और विशेषज्ञों को भी मारने में लगी थी. मोसाद इनकी जानकारी ईरान के उन लोगों से हासिल करती जो देश में रहते हुए न्यूक्लियर प्रोग्राम का विरोध करते थे.
ऐसा नहीं है कि इस दौरान ईरान से मोसाद के जासूसों को न पकड़ा हो. उन्हें पकड़ा गया. मौत की सजाएं दी गई लेकिन मोसाद ने ईरान का बहुत नुकसान पहुंचाया.
मीर डेगन जनवरी 2011 में रिटायर हुए. उस समय उन्होंने कहा, '...उन्होंने ईरान के परमाणु कार्यक्रम में बाधाएं उत्पन्न करके सिर्फ उसे धीमा किया है, पूरी तरह रोका नहीं है.' ईरान का यह कार्यक्रम पहले 2005, फिर 2007, 2009, 2011 में पूरा होना था. डेगन ने इसे 2015 तक खींच दिया. डेगन ने आगे कहा, 'हमें अपनी यह नीति आगे भी जारी रखनी होगी.'
घटनाओं को देखकर लगता है कि इज़राइल डेगन की नीति को लगातार जारी रखे हुए है. मोसाद ईरान में उसके साइंटिस्टों की कब्रें लगातार खोद रहा है.
(स्रोत: MOSSAD: The Greatest Mission Of The Israeli Secret Service
by Michael Bar-Zohar and Nissim Mishal)
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