रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने एलान किया है कि आर्मेनिया और अज़रबैजान, सीज़फ़ायर के लिए राज़ी हो गए हैं.
Armenia and Azerbaijan agree to ceasefire, Russia's Lavrov says https://t.co/nl8fkFKR3s pic.twitter.com/9Kw21c1KrT
— Reuters (@Reuters) October 10, 2020
दोनों देशों ने मिंस्क ग्रुप की मध्यस्थता में हुई बातचीत के बाद युद्धविराम पर सहमति जताई. मिंस्क ग्रुप के सदस्य देशों में रूस, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटली, पुर्तगाल, नीदरलैंड, स्वीडन, फिनलैंड और तुर्की के अलावा आर्मेनिया और अज़रबैजान भी शामिल हैं. पर, आर्मेनिया-अज़रबैजान के बीच युद्ध विराम कराने में सबसे बड़ी भूमिका रूस की रही.
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आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच पिछले महीने से ही जंग चल रही थी. अज़रबैजान ने, आर्मेनिया मूल के बहुमत वाले स्वायत्त क्षेत्र नागोर्नो काराबाख़ पर हमला किया था. जिसके बाद आर्मेनिया ने भी पलटवार करते हुए हवाई हमले किए थे. अज़रबैजान ने इस युद्ध में तुर्की और इज़राइल से मिले ड्रोन्स के ज़रिए काफ़ी बढत बना ली थी.
An Azerbaijani MiG-25 was shot down from the Armenian defenses by the Shilka weapon. In Nagorny Karabakh, the Azerbaijani pilot did more than one maneuver to strike the ground defenses of the Armenian air defense forces ... a fierce war.#Azerbaijan #Baku #Armenia pic.twitter.com/2el2cyHE0t
— 🇵🇰Khan_Lala🇵🇰 (@Swift_Retort) October 7, 2020
दोनों देशों के बीच नागोर्नो काराबाख़ नाम के एक छोटे से पहाड़ी इलाक़े को लेकर कई दशकों से विवाद चला आ रहा है. तकनीकी रूप से ये इलाक़ा अज़रबैजान का हिस्सा है. लेकिन, यहां पर रहने वाले ज़्यादातर लोग आर्मेनिया के साथ जाना चाहते हैं.
बहुत से जानकार इसे इक्कीसवीं सदी का धर्मयुद्ध भी कहते हैं. क्योंकि, इस जंग में अज़रबैजान जैसे मुस्लिम देश के साथ यहूदी देश इज़राइल खड़ा दिखा. तो, इस्लाम के नाम पर तुर्की भी खुलकर अज़रबैजान की मदद कर रहा है.
वहीं, ईसाई बहुल आर्मेनिया के समर्थन में फ्रांस जैसे देश तो हैं ही, ख़ुद को शिया मुसलमानों का अगुवा कहने वाला ईरान भी आर्मेनिया का नैतिक समर्थन कर रहा है.
ये दोनों देश जहां आबाद हैं, वो एशिया और यूरोप के मुहाने पर है. इसे साउथ कॉकेशस का इलाक़ा कहा जाता है. आर्मेनिया और अज़रबैजान जिस नागोर्नो काराबाख़ इलाक़े के लिए लड़ रहे हैं, वो महज़ 4400 वर्ग किलोमीटर में फैला है. और उसकी कुल आबादी बस डेढ़ लाख है.
लेकिन, ज़मीन के इस छोटे से टुकड़े के लिए पिछली एक सदी से आर्मेनिया और अज़रबैजान जंग में मुब्तिला हैं. एक दूसरे का ख़ून बहा रहे हैं.
एक ज़माने में इसे यूरेशिया का Frozen Conflict कहा जाता था. क्योंकि, सोवियत संघ के दौर में कई दशकों तक यहां अमन क़ायम रहा था. सोवियत संघ के विघटन के बाद, 1988 से 1994 तक नागोर्नो काराबाख़ पर क़ब्ज़े को लेकर आर्मेनिया और अज़रबैजान की जंग में 30 हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान गई थी. उसके बाद, 2016 में भी इस क्षेत्र को लेकर हुए युद्ध में 200 लोग मारे गए थे. और अब एक बार फिर नागोर्नो काराबाख़ की पहाड़ियां, एक बार फिर इंसान के ख़ून से रंग दी गईं.
अगर हम इसे आधुनिक इतिहास में सबसे लंबे समय से चल रहा युद्ध कहें तो ग़लत न होगा. एशिया और यूरोप के मुहाने पर बैठे इस इलाक़े पर क़ाबिज़ होने की इस लड़ाई में धार्मिक ठिकानों को निशाना बनाया जा रहा है.
वैसे ये कोई नई बात नहीं. साउथ कॉकेशस के इस हिस्से के लिए ईसाई और मुसलमान लड़ाके और शासक...कई सदियों से धर्म युद्ध या क्रूसेड लड़ते आ रहे हैं. इसीलिए, आर्मेनिया और अज़रबैजान की इस लड़ाई को धर्म युद्ध कहा जा रहा है. क्योंकि, आर्मेनिया ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों का देश है, तो अज़रबैजान सुन्नी मुसलमानों से आबाद है.
इक्कीसवीं सदी के इस क्रुसेड में डायरेक्ट और इनडायरेक्ट तौर पर इन्वॉल्व देश, सिर्फ़ ईसाइत या इस्लाम के नाम पर नहीं लड़ रहे थे. वो अपनी अपनी नई ज़रूरतों, सहूलतों और मुनाफ़ों और इरादों की ख़ातिर भी आर्मेनिया-अज़रबैजान की जंग को भड़का रहे हैं. इक्कीसवीं सदी के इस क्रूसेड में सुन्नी मुसलमानों के देश अज़रबैजान के साथ, सुन्नी मुसलमान बहुल देश तुर्की खुलकर खड़ा है. तो, यहूदियों का देश इज़राइल भी इस युद्ध में अज़रबैजान के साथ है. उसे गोला बारूद मुहैया करा रहा है. सुन्नी बहुल पाकिस्तान ने भी अज़रबैजान की मदद के लिए मुजाहिदीन की शक्ल में अपने सैनिक भेजे हैं.
वहीं, कैथोलिक ईसाई आर्मेनिया के साथ एक और कैथोलिक देश फ्रांस तो खुलकर खड़ा है. लेकिन, ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों का देश रूस, पर्दे के पीछे से आर्मेनिया के साथ है. वहीं, शियाओं का अगुवा ईरान भी ईसाई आर्मेनिया के साथ है.
किसी भी जंग में जान तो इंसान की जाती है. मगर मज़हबों और फ़िरक़ों में बंटे इंसान एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे इसीलिए हो जाते हैं, कि सामने वाले के इबादत करने का तरीक़ा अलग है. आर्मेनिया आज तकनीकी तौर पर अज़रबैजान का हिस्सा माने जाने वाले नागोर्नो काराबाख़ पर क़ाबिज़ है, तो उसकी वजह यही है.
नागोर्नो काराबाख़ की डेढ़ लाख की आबादी में से 99 प्रतिशत ईसाई हैं. जो आर्मेनियन चर्च को मानते हैं. सांस्कृतिक तौर पर भी वो आर्मेनिया के बेहद क़रीब है.
इसी वजह से अज़रबैजान का हिस्सा होने के बावजूद, इस इलाक़े पर आर्मेनिया ने सेना तैनात कर रखी है. जबकि नागोर्नो काराबाख़ से आर्मेनिया की सीमा तक नहीं मिलती. वहीं, चारों ओर से अज़रबैजान से घिरे नागोर्नो काराबाख़ के बाशिंदे, किसी भी क़ीमत पर अज़रबैजान का हिस्सा नहीं बनना चाहते.
जंग की शुरुआत, अज़रबैजान ने की थी, जब उसने नागोर्नो काराबाख़ में आर्मेनिया के सैनिक ठिकानों, टैंकों और मिसाइल डिफेंस सिस्टम को निशाना बनाना शुरू किया. लंबी लड़ाई के बाद भी अज़रबैजान इस इलाक़े को आर्मेनिया से क़ब्ज़े से छुड़ा नहीं सका. इसीलिए, इस बार उसने नए और मशीनी योद्धा मैदान में उतारे, यानी ड्रोन. अज़रबैजान को ये ड्रोन तुर्की और इज़राइल से मिले हैं.
यही वजह है कि नागोर्नो काराबाख़ में आर्मेनिया के लिए तुर्की और अज़रबैजान का गठबंधन ही सबसे बड़ा ख़तरा बन चुका है. और इसे देखते हुए ही वो युद्ध विराम के लिए राज़ी हुआ. वजह ये कि तुर्की ने अज़रबैजान को अटैक ड्रोन TB2 सप्लाई किये हैं. इन्हीं की मदद से आर्मेनिया के टैंक पर आसमान से मिसाइल दाग़ी जा रही थीं. हालांकि इस दिलचस्प गठबंधन में इज़रायल के ड्रोन भी शामिल हैं. जिसे अज़रबैजान आर्मेनिया के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रहा था.
इस जंग में तुर्की, अज़रबैजान के साथ क्यों खड़ा हुआ, उसकी वजह भी समझिए.
असल में अज़रबैजान की 90 फ़ीसद से ज़्यादा आबादी तुर्की मूल की है. तुर्की में ओटोमान साम्राज्य के एक दौर में अज़रबैजान उसका हिस्सा था. आज तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन, दुनिया भर के मुसलमानों के नए ख़लीफ़ा बनने की फ़िराक़ में हैं. इसलिए, वो इस्लाम और तुर्की राष्ट्रवाद के नाम पर अज़रबैजान की हर मुमकिन मदद कर रहे हैं.
यही नहीं, तुर्की ने सीरिया में अपने क़ब्ज़े वाले इलाक़ों से सैकड़ों आतंकवादी, लड़ने के लिए अज़रबैजान भेजे हैं. इनमें से कम से कम दो जिहादियों ने कैमरे पर ये बात स्वीकार की है. अगर, तुर्की इस्लाम के नाम पर, मुसलमानों की ख़िलाफ़त या साम्राज्य बनाने के नाम पर अज़रबैजान के साथ है, तो पाकिस्तान भी इस्लाम के नाम पर अज़रबैजान के साथ खड़ा है. युद्ध विराम होने से पहले ख़बर ये आई थी कि, सुन्नी बहुल पाकिस्तान ने अपने सैनिक, अज़रबैजान भेजे. ये सैनिक मुजाहिदीन के तौर पर लड़ने के लिए भेजे गए हैं.
यानी नागोर्नो काराबाख़ में आर्मेनिया की सेना के मुक़ाबले सिर्फ़ अज़रबैजान की सेना ही नहीं, दुनिया के कई मुसलमान देशों के लड़ाके मोर्चे पर थे.
इसीलिए, ईसाइयों और मुसलमानों के बीच धर्मयुद्ध भी कहा गया. नागोर्नो काराबाख़ के आर्मेनियाई ईसाइयों के ख़िलाफ़ अज़ेरी मुसलमानों की इस जंग में यहूदी मुल्क इज़राइल, अज़रबैजान के साथ खड़ा दिखा. यहां मामला धार्मिक बिल्कुल नहीं. केवल नेशनल इन्टरेस्ट का है.
क्योंकि, इज़राइल, अज़रबैजान से तेल और गैस ख़रीदता है. अज़रबैजान इज़राइल के लिए इम्पॉर्टेंट है, तो उसकी वजह ये है कि अरब देशों और ईरान से इज़राइल को तेल और गैस नहीं मिलता. तेल और गैस के बदले में इज़राइल, अज़रबैजान को अपने हाई एंड ड्रोन और हथियार देता है. इस जंग में अज़रबैजान को इज़राइल से मिली स्पाइक मिसाइल से भी काफ़ी बढ़त मिली.
नागोर्नो काराबाख़ की इस जंग में अगर यहूदी इज़राइल, इस्लामिक देश अज़रबैजान के साथ है. तो, शिया मुल्क ईरान, ईसाइयों के देश आर्मेनिया के साथ खड़ा है.
क्योंकि, ईरान, इज़राइल का दुश्मन है. दोनों देश किसी भी सूरत में एक दूसरे के साथ खड़े नहीं हो सकते. सिर्फ़ यही नहीं, ईरान, तुर्की के साथ भी खड़ा नहीं हो सकता. उसकी सीमाएं अज़रबैजान के अलावा आर्मेनिया से भी मिलती हैं. अज़ेरी मूल के काफ़ी नागरिक ईरान में भी रहते हैं. और, ईरान को डर है कि इस इलाक़े में अगर तुर्की का प्रभुत्व बढ़ा, तो उसके हितों को चोट पहुंच सकती है. सीरिया में भी तुर्की और ईरान के हित टकरा रहे हैं.
यही वजह है कि ईरान लगातार, नागोर्नो काराबाख़ में युद्ध विराम की मांग कर रहा था, जिस पर अब आर्मेनिया अज़रबैजान राज़ी हो गए हैं.
1991 के पहले खाड़ी युद्ध के बाद ये पहला मौक़ा था, जब दुनिया में इतनी भयंकर जंग देखने को मिल रही है. अगर, अज़रबैजान ने ड्रोन हमले को अपनी ताक़त बनाया, तो आर्मेनिया के पास भी हथियारों की कमी नहीं है. क्योंकि उसके पास रूस से ख़रीदे गए विमान, टैंक, मिसाइलें और एंटी टैंक मिसाइलें हैं.
हालांकि, आर्म्स ऐंड एम्युनिशन के नंबर गेम में आर्मेनिया, अज़रबैजान से काफ़ी पीछे है.
आर्मेनिया के पास 50 हज़ार फ़ौज है. जबकि अज़रबैजान की सेना 70 हज़ार से ज़्यादा है. आर्मेनिया के पास 500 से ज़्यादा टैंक हैं. अज़रबैजान के पास 600 से ज़्यादा टैंक हैं. आर्मेनिया के पास 1000 बख़्तरबंद गाड़ियां हैं. अज़रबैजान के पास 1600 बख़्तरबंद गाड़ी हैं. आर्मेनिया के पास 290 तोप हैं. अज़रबैजान के पास इनकी तादाद 700 से ज़्यादा है. आर्मेनिया के पास क़रीब 15 फाइटर जेट हैं. जबकि अज़रबैजान के पास 30 फाइटर जेट हैं.
आर्मेनिया की इसी कमज़ोर हालत को देखते हुए, अज़रबैजान के आक्रमण के ख़िलाफ़ यूरोपीय देशों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे. इन विरोध प्रदर्शनों में अज़रबैजान के इस्लामिक अतिक्रमण और उसको तुर्की के समर्थन पर कई यूरोपीय देशों ने ऐतराज़ जताया था.
तुर्की के प्रति यूरोपीय देशों की नाराज़गी की बड़ी वजह ये है कि नैटो का मेम्बर होने के बावजूद, वो नैटो देशों की नीतियों के ख़िलाफ़ जाकर अज़रबैजान की जंग में कूद पड़ा.
लेकिन, आर्मेनिया और अज़रबैजान की इस जंग का सबसे अहम किरदार है, रूस. जो न्यूट्रल बना रहा. रूस अज़रबैजान को भी हथियार सप्लाई करता है और आर्मेनिया को भी. इस इलाक़े में रूस एक हिस्टोरिकल कैरेक्टर रहा है. और सही मायनों में वही, इस जंग का ज़िम्मेदार है. क्योंकि, एक ज़माने में आर्मेनिया और अज़रबैजान, दोनों ही सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे.
1922 में तुर्की को ख़ुश करने के लिए ही रूसी तानाशाह जोसेफ स्टालिन ने नागोर्नो काराबाख़ को आर्मेनिया से लेकर अज़रबैजान को सौंप दिया था. जबकि यहां की ज़्यादातर आबादी आर्मेनियाई मूल की थी. स्टालिन को लगता था कि तुर्की, इससे ख़ुश होकर, कम्युनिस्ट देशों के खेमे में आ जाएगा. पर, ऐसा हुआ नहीं. 1988 में भी जब नागोर्नो काराबाख़ के लोगों ने एक सुर से आर्मेनिया में विलय की मांग की थी, तो रूस ने इसे ठुकरा दिया था. और आर्मेनिया अज़रबैजान के बीच युद्ध छिड़ गया था.
1991 में सोवियत के विघटन के बाद आर्मेनिया और अज़रबैजान आज़ाद हो गए, तो नागोर्नो काराबाख़ ने ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया. उसे आर्मेनिया की सरपरस्ती हासिल थी. आर्मेनिया की सेना वहां तैनात थी.
पर, चूंकि 1922 में स्टालिन ने इस क्षेत्र को अज़रबैजान को सौंप दिया था. तो, आज भी पूरी दुनिया नागोर्नो काराबाख़ को अज़रबैजान का हिस्सा मानती है. आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच ताज़ा जंग की जड़ में यही ऐतिहासिक फैक्टर है.
वैसे, आर्मेनिया को लेकर रूस की ज़िम्मेदारी ख़ास है. आर्मेनिया और रूस Collective Security Treaty Organization के सदस्य हैं. इस संगठन में कज़ाख़िस्तान, किर्गीज़िस्तान, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान भी शामिल हैं. समझौते के तहत, अगर इनमें से किसी भी देश पर अटैक होता है, तो बाक़ी देश उसकी हिफ़ाज़त में आगे आएंगे. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा भी था कि अगर आर्मेनिया पर डायरेक्ट हमला होता है, तो रूस इस संधि के तहत आर्मेनिया की रक्षा के लिए वचनबद्ध है.
अज़रबैजान को अच्छे से पता था कि अगर इस जंग में रूस कूदा, तो उसकी हार तय है. इसीलिए, अज़ेरी सेना ने इस बार आर्मेनिया पर डायरेक्ट हमला करने के बजाय नागोर्नो काराबाख़ के बहाने से आर्मेनिया को टारगेट किया था. क्योंकि, तकनीकी तौर पर ये उसका अपना ऑटोनॉमस इलाक़ा है. नागोर्नो काराबाख़ पर हमले को आर्मेनिया पर अटैक नहीं माना जा सकता. युद्ध विराम कराने में रूस का एक हित ये भी है कि उसके आर्थिक हित भी अज़रबैजान से जुड़े हैं.
और इसीलिए, रूस ने मध्यस्थता करके आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच गोलीबारी को रुकवाने में अहम भूमिका निभाई. पर ये शांति कितनी स्थायी है, इसका अंदाज़ा दोनों देशों के ऐतिहासिक झगडे के रिकॉर्ड को देखते हुए आसानी से समझा जा सकता है.
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