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'बड़े भाई' से 'छोटे भाई' बने नीतीश कुमार, जानिए सुशासन बाबू का राजनीतिक सफर

Babita Pant

नई द‍िल्‍ली 10 Nov, 2020 05:15 pm

Bihar Assembly Election Results 2020: बिहार विधानसभा चुनाव के लिए मतगणना जारी है. चुनाव आयोग से मिली ताजा जानकारी के मुताबिक आरजेडी की अगुवाई में बने महागठबंधन पर एनडीए गठबंधन भारी पड़ता दिख रहा है. लेकिन खास बात यह है कि बिहार में एनडीए के गठबंधन में हमेशा वरिष्‍ठ सहयोगी की भूमिका निभाने वाली नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू बैकफुट पर चली गई है. अभी तक आ रहे रुझानों में जेडीयू का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा है और वो बीजेपी, आरजेडी के बाद तीसरे पायदान पर पहुंच गई. जहां, एक तरफ बीजेपी बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है, वहीं नीतीश को जनता ने लगता है नकार दिया है. नीतीश एनडीए के सीएम कैंडिडेट हैं. ऐसे में अब देखना दिलचस्‍प होगा कि अगर बीजेपी राज्‍य में सरकार बनाती है तो सीएम नीतीश होंगे या नहीं? बहरहाल, जो भी हो चिराग पासवान की मेहनत रंग लाई है. उन्‍होंने लगातार नीतीश पर निशाना साधे रखा, जबकि पीएम मोदी की तारीफ करते रहे. कुल मिलाकर एक तरह से बीजेपी बिहार में नीतीश के पर कतरने में सफल रही है.

नीतीश कुमार का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. शुरुआती राजनीतिक असफलताओं के बाद जिस तरह से नीतीश ने सफलता का परचम लहराया है उस बात का लोहा उनके राजनीतिक विरोधी भी मानते हैं.

1 मार्च 1951 को पटना से 80 किलोमीटर दूर बख्तियारपुर में जन्में नीतीश कुमार ने आपातकाल के विरोध में हुए आंदोलन में जमकर हिस्सा लिया. कई महीनों तक अंडरग्राउंड रहकर उन्होंने आंदोलन को रफ्तार प्रदान किया था. लेकिन 1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में जहां जनता पार्टी को बिहार में भारी सफलता मिली वहीं नीतीश कुमार चुनाव हार गए थे. नीतीश को विधायक बनने के लिए 1985 तक का इंतजार करना पड़ा था. जहां नीतीश चुनाव हार रहे थे वहीं लालू प्रसाद राजनीति के मैदान में लगातार जीत दर्ज कर रहे थे. लेकिन अपनी बेदाग छवि के दम पर नीतीश लगातार क्षेत्र में सक्रिय रहे थे. 

संकर्षण ठाकुर अपनी किताब अकेला आदमी (कहानी नीतीश कुमार की) में लिखते हैं, "1990 में लालू को मुख्यमंत्री बनाने में नीतीश ने अहम किरदार अपनाया था. नीतीश अंतर्मुखी स्वभाव के थे. नीतीश के साथ समस्या यह थी कि वो अपने लिए लॉबिंग करने में विश्वास नहीं रखते थे. वहीं नीतीश कुमार के शुरुआती राजनीतिक असफलता के कारण लालू प्रसाद उन्हें बहुत अधिक तरजीह नहीं देते थे." लालू प्रसाद को मुख्यमंत्री बनने में मदद करने के बावजूद भी 1991 के बाद एक दौर ऐसा भी आया था जब नीतीश के पास न ही दिल्ली और न पटना में रहने के लिए आवास था.

अकेला आदमी किताब के अनुसार, "मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू सत्ता के नशा में चूर हो गए थे. लगातार 3 वर्ष तक नीतीश को उन्होंने हर अवसर पर अपमानित किया था. नीतीश व्यक्तिगत मुलाकात या बैठक में मुद्दा आधारित विरोध दर्ज करवाते थे. लेकिन लालू प्रसाद पर कोई असर नहीं होता था."

नीतीश का धैर्य अन्ततः जवाब दे दिया था. 1993-1994 में पटना के गांधी मैदान में कुर्मी अधिकार रैली के मार्फत लालू के विरोध में उन्होंने विद्रोह कर दिया था. इस रैली को बिहार की राजनीति में परिवर्तनकारी माना जा सकता है. 

उस रैली में नीतीश ने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था, "भीख नहीं अधिकार चाहिए." 

जब संघर्ष के साथी आपस में टूटते है, तो बहुत ही दिलचस्प लड़ाई होती है. अंतर्मुखी स्वभाव वाले नीतीश जब तक लालू के साथ थे तो पूरी तरह से साथ थे. जब लालू का उन्होंने विरोध किया तो चुन-चुन कर लालू विरोधियों को उन्होंने अपने साथ जोड़ा. राजनीति की यह खूबसूरती भी है. नीतीश ने संघ और बीजेपी से भी हाथ मिलाने में संकोच नही किया.

समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर उन्होंने समता पार्टी का गठन किया था. 1995 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मात्र 7 सीटों पर ही सफलता मिली थी लेकिन इस चुनाव के बाद उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत की 2000 के विधानसभा चुनाव तक आते-आते उनके नेतृत्व में एक मजबूत गठबंधन आकार ले चुका था. नीतीश केंद्र में मंत्री बन चुके थे. इस दौरान अगस्त, 1999 के गायसल (किशनगंज, बिहार) रेल हादसे के बाद नीतीश कुमार ने रेल मंत्री के पद से नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़ा दिया था. तब ये कहा गया था कि लाल बहादुर शास्त्री के बाद नैतिक आधार पर इस्तीफा देने वाले नीतीश दूसरे रेल मंत्री हैं.

2000 के विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने पहली बार गठबंधन के नेता के रूप में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. हालांकि वो सदन में बहुमत साबित करने में असफल रहे थे. 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद भी लोजपा द्वारा समर्थन नहीं करने के कारण नीतीश सरकार बनाने में असफल रह गए थे. लेकिन 6 महीने के भीतर ही उन्होंने लोजपा के 29 में से अधिकतर विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करवा लिया था. जिसके बाद बिहार में राष्ट्रपति शासन खत्म कर विधानसभा चुनाव करवाया गया. इस चुनाव के बाद नीतीश कुमार पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमत्री बने. 

मुख्यमंत्री बनने के साथ ही उन्होंने शिक्षक नियुक्ति, सुशासन और सामाजिक न्याय के साथ विकास जैसे मुद्दों को उठाया. नीतीश कुमार ने बिहार के जातिगत विभाजन को न सिर्फ अपना राजनीतिक हथियार बनाया बल्कि दलित से महादलित, पिछड़ा से अतिपिछड़ा जैसे पहचान को अलग कर के एक अलग तरह की कास्ट आइडेंटिटी वाली राजनीति की शुरुआत की. बिहार में 2 दर्जन से अधिक जातियों को उनकी राजनीतिक आइडेंटिटी बतायी गयी. हर जाति के नेता विधायक और सांसद बनने लगे. नीतीश के सोशल इंजीनियरिंग ने लालू के सामाजिक न्याय की राजनीति को और भी अधिक परिष्कृत कर दिया. साथ में सुशासन और विकास का तड़का लगा कर उन्होंने लालू को राजनीति के मैदान में बौना साबित कर दिया. 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली गठबंधन को 243 सीटों वाले विधानसभा में 206 सीटों पर जीत मिली. 

कहा जाता है कि नीतीश अंतर्मुखी के साथ-साथ अपने विचारों को लेकर काफी जिद्दी स्वभाव के रहे हैं. बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलाने के बाद भी उन्होंने कुछ मुद्दों पर बीजेपी के साथ कभी समझौता नहीं किया. कई ऐसे मौके आए जब उन्होंने बीजेपी को आंख दिखाया है. नरेंद्र मोदी को नेता मानने के नाम पर भी उन्होंने काफी विरोध किया था. बाद में उन्होंने बीजेपी से 2013 में गठबंधन भी तोड़ लिया था. 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले दम पर उनकी पार्टी ने चुनाव लड़ा था लेकिन उन्हें मात्र दो सीटों पर सफलता मिली थी. बाद में लगभग 2 दशक बाद उन्होंने लालू प्रसाद के साथ मिलकर गठबंधन कर 2015 का विधानसभा चुनाव लड़ा था जिसमें बीजेपी गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा था. हालांकि कुछ ही दिनों बाद राजद से गठबंधन तोड़ कर उन्होंने एक बार फिर से एनडीए में वापसी कर ली.

2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार का जादू ही था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली बीजेपी ने गठबंधन के तहत मात्र 17 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में NDA को बिहार में 40 में से 39 सीटों पर जीत मिली. राष्ट्रीय राजनीति में भी कई ऐसे मौके आए हैं जब नीतीश ने सब को चौकाया है. सीएए बिल का सदन में उन्होंने सपोर्ट किया था लेकिन वहीं बिहार विधानसभा में उन्होंने NPR 2010 के फॉर्मेट पर ही करवाने का प्रस्ताव पारित करवा कर भेज दिया था. हालांकि हाल के दिनों में कोरोना संकट से लेकर अन्य मुद्दों पर विपक्ष ने नीतीश कुमार को काफी परेशान किया है. लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव परिणाम देखकर लगता है कि नीतीश बीजेपी के चक्रव्‍यूह में फंस ही गए.

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