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BLOG: लोकतंत्र में 'विरोध' को अनुशासन में रहना होगा...

Suresh Kumar

नई दिल्‍ली 07 Oct, 2020 06:45 pm

देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा है कि ‘विरोध प्रदर्शन के नाम पर सार्वजनिक स्थानों पर अनिश्चित काल के लिए क़ब्ज़ा नहीं किया जा सकता.’

सर्वोच्च न्यायालय ने ये भी कहा है, ‘अगर विरोध के नाम पर सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकाल के लिए क़ब्ज़ा हो जाता है, तो अधिकारियों को ख़ुद इस क़ब्ज़े को हटाने का अधिकार है. वो अदालतों के आदेश के इंतज़ार में बैठे नहीं रह सकते.’

अब माननीय जज साहेबान ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा. देश की सबसे बड़ी अदालत ने ये भी कहा कि, ‘लोकतंत्र में विरोध की बहुत अहमियत है. दोनों साथ-साथ ही चलते हैं.’

मगर, माननीय जज साहेबान ने जो बात बिना कहे कह दी है, वो ये है कि- Dissent in Democracy has a particular designated place.

यानी लोकतंत्र में विरोध की जगह सुनिश्चित है. और आप विरोध के नाम पर कहीं भी धरना या प्रदर्शन नहीं कर सकते. उसकी जगह नियत है और नियत जगह पर जाकर विरोध कीजिए. 

किसी सड़क, किसी पार्क, देश की संसद, विधानसभाओं या न्यायालयों के सामने धरने पर मत बैठ जाइए. बेहतर हो कि आप हुकूमत से पूछ लें कि हुज़ूर यहां धरना दे सकते हैं. फलां जगह पर प्रदर्शन कर सकते हैं या नहीं?

वरना सुप्रीम कोर्ट ने तो ये भी कह दिया है कि अधिकारी…माने पुलिस और प्रशासनिक अमला, कोर्ट के आदेश का इंतज़ार न करे. और ऐसे किसी सार्वजनिक स्थल पर किए गए क़ब्ज़े को ख़ुद ख़ाली करा ले.

अब हमारे देश में पुलिस या प्रशासनिक अमला कैसा बर्ताव करता है, वो दिल्ली से लेकर हाथरस तक बिल्कुल साफ़ है. विरोध करने वालों को अगर लाठी खानी है, तो लोकतांत्रिक प्रतिकार के अधिकार का इस्तेमाल करें. वरना, तो हुज़ूर ने कह दिया है कि वहां, उस कोने में जाकर धरना दो, बेहतर हो कि विरोध करना है, तो अपनी ज़मीन, अपने घर पर करो. क्योंकि किसी सार्वजनिक स्थल पर धरना देना अदालत के हिसाब से ग़लत है. और बाक़ी का काम पुलिस कर लेगी, जब वो एक घंटे के धरने या प्रदर्शन को ही अनिश्चित काल का घोषित करके लाठियां बरसाएगी और लोकतांत्रिक विरोध को मार भगाएगी. 

क्योंकि इस देश की सबसे बड़ी अदालत ने यही कहा है- ‘अधिकारी हमारे आदेश के इंतज़ार में न बैठे रहें. ख़ुद ज़रूरी क़दम उठा लें.’

तो साहब, क़िस्सा मुख़्तसर ये कि संविधान ने हमें जो विरोध का अधिकार दिया है, वो अपने घर में है. सार्वजनिक स्थलों पर नहीं.

हमारे संविधान की प्रस्तावना कहती है कि देश के हर नागरिक को सोचने, विश्वास करने, पूजा, धार्मिक आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी.

हमारे संविधान की धारा 19 की उप धाराओं a से c तक इन अधिकारों की व्याख्या विस्तार से की गई है. देश के हर नागरिक को-

  1. अभिव्यक्ति और भाषण की आज़ादी होगी
  2. किसी भी जगह बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने की स्वतंत्रता होगी
  3. संगठन या संघ बनाने की भी स्वतंत्रता होगी

और संविधान से मिले यही अधिकार हमें अपने लोकतांत्रिक देश में विरोध को भी अभिव्यक्त करने की आज़ादी देते हैं.

शाहीन बाग़ के ही नहीं, देश के किसी भी हिस्से में प्रदर्शन करने वाले, विरोध जताने वाले इसी अधिकार के तहत शांतिपूर्ण तरीक़े से इकट्ठा होकर सरकार के ख़िलाफ़ या किसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपने विरोध को अभिव्यक्त करते हैं.

लेकिन, अब सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा है कि विरोध के नाम पर आप सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकाल के लिए क़ाबिज़ नहीं रह सकते.

तो, आप विरोध कैसे करेंगे? अपना विरोध व्यवस्था, प्रशासन, अधिकारियों और सरकार तक कैसे पहुंचाएंगे.

शाहीन बाग़ की ही मिसाल लें. वहां पर प्रदर्शनकारी क़रीब तीन महीने तक डटे रहे. इस दौरान, न दिल्ली सरकार का एक भी नुमाइंदा उनके पास गया और न ही केंद्र सरकार ने ऐसी कोई पहल की.

ख़ुद सुप्रीम कोर्ट की बनाई हुई टीम ही, प्रदर्शनकारियों से बातचीत के लिए वहां पहुंची. और अब सुप्रीम कोर्ट ने ही सड़क पर बैठे लोगों की हरकतों को नाजायज़ क़रार दे दिया है.

इसे इस नज़रिए से भी देखें कि जिस क़ानून का, सरकार के जिस फ़ैसले का ये लोग विरोध कर रहे थे, उसने उनके विरोध को कोई तवज्जो नहीं दी. जिस मंत्रालय के तत्वावधान में नागरिकता का संशोधन क़ानून बना, उसके मुखिया यानी देश के गृह मंत्री अमित शाह वोट के ज़रिए शाहीन बाग़ को करंट लगाने की बात सार्वजनिक मंचों से करते रहे.

ऐसे विरोध की अभिव्यक्ति किस काम की है, जिसका सरकारें और अधिकारी संज्ञान ही न लें.

और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अगर हम आम आदमी की ज़ुबान में कहें, तो लोकतंत्र में विरोध का उतना ही स्थान बचता है कि आप अपना विरोध लेकर घर बैठें, और जब वोटिंग हो, तो जाकर EVM का बटन दबाकर अपना विरोध जताएं. इसके बाद अगले पांच सालों के लिए भूल जाएं कि विरोध को अभिव्यक्त करने का कोई अधिकार संविधान ने दिया है.

क्योंकि एक तो सुप्रीम कोर्ट ने ही कह दिया कि सार्वजनिक स्थलों पर क़ब्ज़ा करके आप विरोध नहीं कर सकते. 

दूसरा, ख़ुद सरकारें आपकी आवाजाही को कंट्रोल करेंगी.

यूं तो भारत के संविधान की धारा-19 कहती है कि ‘देश के हर नागरिक को पूरे भारत में कहीं भी आने जाने की स्वतंत्रता होगी.’ 

लेकिन, अगर सरकार को ये लगता है कि इससे-

1-देश की सुरक्षा को ख़तरा है
2-अन्य देशों से दोस्ताना संबंधों पर बुरा असर पड़ सकता है
3-इससे समाज की नैतिकता पर बुरा असर पड़ने का डर है
4-अदालत की अवमानना का ख़तरा है
5-सरकार के अपमान का डर है

और
6-लोगों को भड़काया जा सकता है
7-किसी की आवाजाही जनहित के ख़िलाफ़ है

या
8-फ्रीडम ऑफ़ मूवमेंट से भारत की संप्रभुता ख़तरे में पड़ सकती है, 
तो सरकार नागरिकों के कहीं भी आने जाने की स्वतंत्रता को सीमित कर सकती है.

और संविधान प्रदत्त इसी अधिकार के तहत पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की सरकार ने विरोधी दलों के नेताओं से लेकर मीडिया तक को हाथरस के बूलगढ़ी गांव में घुसने से रोका था.

और याद रहे कि कहीं भी आने जाने की आज़ादी व अभिव्यक्ति की आज़ादी को सीमित करने का ये संवैधानिक प्रावधान आज नहीं, साल 1951 में लाया गया था. वो भी संविघान के पहले संशोधन के ज़रिए. और ये संवैधानिक बदलाव पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने किया था.

और अब सुप्रीम कोर्ट ने विरोध की अभिव्यक्ति की आज़ादी को एक नई परिभाषा में ढाल दिया है. जहां विरोध तो हो सकता है, मगर उसकी जगह नियत होगी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ये साफ़ नहीं किया है कि विरोध की ये जगह सुनिश्चित कौन करेगा? ये कैसे तय होगा कि विरोध करने वालों ने सार्वजनिक स्थलों जैसे कि सड़क, पार्क या किसी अन्य पब्लिक प्लेस पर अनिश्चित काल के लिए क़ब्ज़ा कर लिया था?

ये एक घंटे के विरोध के बाद भी पुलिस को लग सकता है. और कभी ऐसा हुआ कि किसी सड़क पर लोग बैठें भी न और सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लैस पुलिस अधिकारी, लाठी चार्ज का हुक्म दे दें. क्योंकि इंडिया में सड़कों पर ट्रैफिक की कमी तो है नहीं. जाम तो पांच मिनट के प्रदर्शन से भी लग जाएगा.

और पार्क में बैठे प्रदर्शनकारियों से उन लोगों को दिक़्क़त होगी जो वहां घूमने जाते हैं. वर्ज़िश के लिए जाते हैं या फिर घर से आउटिंग व पिकनिक के लिए निकलते हैं.

तो, ज़ाहिर है शाहीन बाग़ के धरने को ग़लत ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़ैसला दिया है, उसकी सरकार और प्रशासनिक अधिकारी अपने हिसाब से ही व्याख्या करेंगे. वो व्याख्या जो सरकार को सूट करे.

क्योंकि, उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहीं भी आने जाने की स्वतंत्रता सीमित करने वाले इसी संवैधानिक संशोधन से लैस होकर, हाथरस में विरोधी पार्टियों के नेताओं और मीडिया को जाने से रोका.

और अब तो विरोध प्रदर्शन के पीछे विदेशी ताक़तों का हाथ, इंटरनेशनल प्लॉट जैसे और भी ख़तरनाक किरदार भी सरकार द्वारा देखे जा रहे हैं. फिर चाहे वो दिल्ली दंगों की जांच हो या फिर हाथरस कांड को लेकर यूपी सरकार के ख़िलाफ़ उठ रहे विरोध के सुर.

एक दौर था, जब दिल्ली में बोट क्लब पर रैलियां हुआ करती थीं. किसानों के विरोध प्रदर्शन होते थे. सत्ता प्रतिष्ठान के इतने क़रीब होने वाले विरोध प्रदर्शनों को मीडिया भी तवज्जो देता था. सरकारों पर दबाव बनता था. 

1988 में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसानों ने क़रीब एक हफ़्ते तक बोट क्लब पर डेरा जमा लिया था. किसान अपने जानवरों के साथ आए थे. उन्होंने वहीं खाना पकाना और बच्चों को नहलाना धुलाना शुरू कर दिया. ये जगह संसद भवन, राष्ट्रपति भवन और सत्ता प्रतिष्ठान का गलियारा कहे जाने वाले लुटिएंस ज़ोन के बेहद क़रीब थी.

तब महेंद्र सिंह टिकैत ने विरोध की अभिव्यक्ति के अधिकार का उपयोग करते हुए सरकारों को अपने फ़ैसले बदलने और किसानों की बात मानने के लिए मजबूर किया था. फिर, प्रशासन ने बोट क्लब को विरोध प्रदर्शन के लिए नो-गो एरिया घोषित कर दिया. जिसके बाद दिल्ली के जंतर मंतर को विरोध का नया अड्डा बनाया गया. जहां स्वयंसेवी संगठनों, किसानों, राजनीतिक दलों के सैकड़ों विरोध प्रदर्शन देश ने देखे. लाउडस्पीकर लगाकर बहरी सरकार तक आवाज़ पहुंचाने का प्रयास हुआ. ये जगह भी लुटिएंस ज़ोन के बेहद क़रीब थी. मगर हुकूमत को उतना ख़तरा नहीं महसूस हुआ, जितना बोट क्लब से था.

लेकिन, अब विरोध के शोर शराबे से वायुमंडल को नुक़सान पहुंचने का नुस्खा ईजाद किया गया. नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ने आदेश दिया कि जंतर मंतर पर हर तरह के विरोध प्रदर्शन, लोगों के इकट्ठा होने, भाषण देने, लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करने पर रोक लगाई जाती है.

अब दिल्ली में विरोध प्रदर्शन का नया ठिकाना रामलीला मैदान को बनाया गया. ये हुक्मरानों के इलाक़े से दूर है. यहां मचने वाले शोर से भी किसी का बुरा नहीं होता. पब्लिक है, उसे तो इसी शोर-शराबे में जीने की आदत है. फिर विरोध की कुछ क़ीमत तो उसे चुकानी ही होगी. लिहाज़ा साल 2011 से विरोध प्रदर्शन के लिए दिल्ली में रामलीला मैदान को अड्डा बना दिया गया. ये ठिकाना लुटिएंस ज़ोन से दूर है. सिक्योरिटी रिस्क नहीं है. जिसे विरोध करना हो, यहां आए और करता रहे.

व्यवस्था ने जिस तरह विरोध की अभिव्यक्ति को सत्ता प्रतिष्ठानों से दूर और दूर धकेला, वो कोई चौंकाने वाली बात नहीं. 

लोकतंत्र में विरोध की बहुत अहमियत है, ये जुमला उछालने में तो बहुत लुत्फ़ आता है. मगर, लोकतंत्र में ये अधिकार देने को सत्ता प्रतिष्ठान क़तई राज़ी नहीं.

तो, नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए पब्लिक ने इनोवेटिव तरीक़ा अपनाया. इस बार शाहीन बाग़ समेत कई जगहों पर पब्लिक प्लेस को विरोध का अड्डा बनाया. 

प्रदर्शनकारियों को लगा कि उनकी आवाज़ सरकार तक पहुंचेगी. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. विरोध करने वालों को लगा कि बाक़ी जनता को उनसे हमदर्दी होगी. लेकिन, ये भी नहीं हुआ. धरने के कारण लगने वाले जाम से सरकार को तो कोई फ़र्क़ नहीं पहुंचा. मगर, बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई.

और अब, शाहीन बाग़ के हवाले से सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है, उससे विरोध की अभिव्यक्ति कर पाना और भी मुश्किल होगा. देश के नागरिक विरोध करें, तो कहां करें और कितनी देर करें, इसका फ़ैसला अब व्यवस्था करेगी. और वही व्यवस्था, जिसे विरोध पसंद नहीं है. अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को तंत्र कुचल देना और ख़ामोश कर देना चाहता है.

लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विरोध के अधिकार को अहम मानने वालों को सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद ख़ुद को और इनोवेट करना होगा.

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