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BLOG: क्‍या अमेरिका ने लोकतंत्र को असुरक्षित छोड़ दिया?

Suresh Kumar

नई दिल्‍ली 08 Jan, 2021 03:00 pm

’अब समय आ गया है, ज़ख़्मों को भरने का…20 जनवरी को सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण होगा’

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के इन शब्दों पर भला कौन यक़ीन करे? जब लोकतांत्रिक तरीक़े से चुना गया एक राष्ट्रपति अपने समर्थकों को भड़काकर, चुनाव के नतीजे पलटने, फ़ैसला अपने हक़ में करने का प्रयास करे. पूरी दुनिया की लोकतांत्रिक व्यवस्था के दिल पर चोट करे, और उसके बाद कहे कि ज़ख़्मों पर मरहम लगाने का वक़्त आ गया है, तो क्या उस पर भरोसा किया जा सकता है?

बुधवार को अमेरिका में जो कुछ भी हुआ, वो विश्व इतिहास की सबसे स्याह घटनाओं में से एक था.

कैपिटॉल हिल पर ट्रंप के दंगाइयों का हमला, इस बात का प्रतीक है कि हमने लोकतंत्र को असुरक्षित छोड़ दिया है. जिन लोकतांत्रिक मूल्यों और समाज में हम पले-बढ़े हैं, जिन अधिकारों का उपयोग करके हम अपनी बात कह पा रहे हैं, वो मूल्य, वो व्यवस्था आज भयंकर रूप से ख़तरे में है. असुरक्षित है. 

दुनिया में जिसे भी लोकतांत्रिक मूल्यों, क़ानून के राज, अभिव्यक्ति की आज़ादी, समानता के अधिकार जैसे सिद्धांतों पर विश्वास है, उसे सावधान हो जाना चाहिए.

पिछले कई दशकों से हम इन मूल्यों को अपना जन्मजात अधिकार मान बैठे हैं. ऐसा सोचते हैं कि कोई तोहफ़े में सजाकर ये अधिकार हमें देगा. मगर, कैपिटॉल हिल की घटना का संदेश बिल्कुल साफ़ है. अगर आपको लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास है, आप जनतांत्रिक सिद्धांतों पर चलने वाले समाज का निर्माण करना चाहते हैं, तो आपको संघर्ष करना होगा. आपको लड़नी होगी लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई. आप ख़ुद को इनके सहज और स्वाभाविक अधिकारी मानने की भूल करेंगे, तो कैपिटॉल हिल जैसी घटना फिर से होगी. और इस बार दंगाई अपने मक़सद में सफल हो जाएंगे.

आज पूरे विश्व में लोकतंत्र ख़तरे में है. लोकतंत्र के नाम पर रूस में तानाशाही शासन करने वाले व्लादिमीर पुतिन कहते हैं, ‘उदारवाद पुराना पड़ चुका है.’ रूस के पड़ोसी और क़रीबी दोस्त चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, तो लोकतंत्र का आडम्बर भी नहीं करते. चीन, अपने उदय के साथ-साथ पूरी दुनिया को एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था का निर्यात कर रहा है, जहां नागरिकों के अधिकार नहीं हैं. वो शासकों के खेल के खिलौने हैं. उनके निर्यात की वस्तुएं हैं. ऐसे सर्विलांस स्टेट की स्थापना हम एशिया से लेकर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक होते देख रहे हैं.

और, जो यूरोप ख़ुद को लोकतंत्र का जनक मानता है, वहां के हालात भी देखिए. हंगरी के विक्टर ओरबान लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए नेता हैं. तो चेक गणराज्य के राष्ट्रपति भी जनतांत्रिक व्यवस्था के चलते अपने देश के शीर्ष पद पर हैं. पर, क्या ये नेता सही मायनों में लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते हैं, उनका पालन करते हैं?

इसका जवाब स्पष्ट रूप से नहीं है.

अमेरिका में जो कुछ हुआ, वो लोकतंत्र के समर्थकों के लिए बिल्कुल सही समय पर आयी चेतावनी है. राष्ट्रवादी राजनीति, जनवादी नेता, स्वयं को देवता बनाकर प्रस्तुत करने वाले लीडर, लंबी अवधि में देश के लिए कितने ख़तरनाक हो सकते हैं, लोकतंत्र को कितना नुक़सान पहुंचा सकते हैं, इसका उदाहरण अमेरिका है.

2016 में डॉनल्ड ट्रंप लोकतांत्रिक तरीक़े से अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे. मगर, उसके बाद के चार वर्षों में अपनी पॉपुलिस्ट नीतियों, नस्लवादी बयानों और विभाजनकारी फ़ैसलों से ट्रंप ने अमेरिकी लोकतंत्र की चूलें हिला दी हैं. कैपिटॉल हिल में जो कुछ हुआ वो इसी की परिणति है. जब हम किसी लोकतांत्रिक नेता की सनक, उसकी ज़िद को बार-बार मानते जाते हैं, तो आख़िर में वही होता है, जो हमने कैपिटॉल हिल पर देखा. 

जब समाज में फ़िरक़ापरस्ती, हम और तुम का बंटवारा, साधु और शैतान की लक़ीरें खींची जाती हैं, तो ये वक़्ती तौर पर उचित लगता है. हमारी अपनी कमज़ोरियों पर, अंतर्निहित पूर्वाग्रहों पर पर्दा डालता है. लेकिन, आगे चलकर इसका अंजाम बेहद भयानक होता है.

क़रीब 157 साल पहले अमेरिका के ही एक राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुछ इस तरह से परिभाषित किया था,

‘जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए’

और आज कुछ लोग कैपिटॉल पर दंगाइयों के हमले का ये कहकर बचाव कर सकते हैं कि उसी जनता ने अपने लिए बने लोकतंत्र के मंदिर का मनमाना उपयोग किया.

लेकिन, उन्हें याद रखना चाहिए कि जनादेश को अलग अलग तरीक़े से परिभाषित किया जा सकता है. कुछ नेताओं को जनादेश मिलने पर ये गुमान भी हो सकता है कि उन्हें तो शासन करवने का दैवीय अधिकार मिल गया है. फिर वो अपनी सत्ता को स्थायी और चिरंतन बनाने के लिए तिकड़मों का सहारा लेते हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था का हवाला देते हुए उसकी कमज़ोरियों की मदद से सत्ता पर हमेशा के लिए, क़ाबिज़ हो जाना चाहते हैं.

आप कैपिटॉल हिल पर दंगाइयों के हमले के एक दिन बाद आए, ट्रंप के बयान की बारीक़ियां समझिए. ट्रंप ने कहा कि वो तो बस चुनाव के नतीजों को चुनौती देने के अपने वाजिब संवैधानिक अधिकार का अंतिम सीमा तक उपयोग कर रहे थे. यानी उन्हें लोकतंत्र से बैर नहीं. वो तो लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनकर उसे पलीता लगा रहे थे. 

इसमें ग़लती किसकी है?

आज से 70-80 हज़ार बरस पहले जब इंसानों में ज्ञान संबंधी क्रांति हुई, उसके बाद से उसने जंगल के क़ानूनों के हिसाब से चलने के बजाय, रूल ऑफ़ ला की तलाश करनी शुरू की. हज़ारों बरसों की इंसानी सभ्यता में ऐसी तमाम मिसालें भरी पड़ी हैं, जब हमने तमाम तरह की शासन व्यवस्थाओं को अपनाया. राजशाही, गणराज्य,  तानाशाही, बादशाहत, पंचायती व्यवस्था, क़बीलाई सिस्टम…सामूहिक निर्णय वाली व्यवस्था. हज़ारों बरस के इस सफ़र के बाद, आज से महज़ कुछ सदी पहले हम इस नतीजे पर पहुंचे कि, ‘जनता की आवाज़ ईश्वर की आवाज़ है.’

यूरोपीय देशों से आधुनिक गणतांत्रिक व्यवस्था का उदय हुआ, जो धीरे धीरे विश्व के तमाम देशों तक पहुंचा और उनके द्वारा अपनाया गया.

हालांकि, इससे पहले भी हम गणतांत्रिक मूल्यों की अभिव्यक्ति अलग अलग समाजों में होते देखते रहे थे. जैसे कि भारत में, ईसा से क़रीब 600-700 वर्ष पहले, उत्तर वैदिक युग में 16 महाजनपदों की व्यवस्था थी. 

पर, कौटिल्य ने स्थानीय स्तर पर विकसित इन सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का चंद्रगुप्त के माध्यम से दमन कराते हुए एक सशक्त मौर्य साम्राज्य की स्थापना की.

ये बात अविश्वसनीय लगेगी, परंतु सच है कि हम आज भारत की उस प्राचीन लोकतांत्रिक व्यवस्था का दमन करने वाले कौटिल्य उर्फ़ चाणक्य को भारतवर्ष का प्रेरणापुरुष मानते हैं. 

ज़ाहिर है, लोकतंत्र को लेकर एक तरह का अविश्वास हमारे मन में है. लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं, परंपराओं, मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति यही अविश्वास, इसके विरुद्ध जाने का साहस देता है, उसका मार्ग दिखाता है. फिर उसकी परिणति हम कैपिटॉल हिल पर हमले के रूप में देखते हैं.

अमेरिका में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं तो इतनी सशक्त थीं कि उन्होंने लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए एक राष्ट्रपति को तानाशाह बनने से रोक लिया.

लेकिन, क्या भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में वो शक्ति है कि अगर किसी दिन कोई नेता स्वयं को शासन करने के दैवीय अधिकार से लैस घोषित कर दे, तो हम उसे रोक पाएंगे? हम उसके ख़िलाफ़ संघर्ष कर पाएंगे? हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं ऐसे व्यक्ति की तानाशाही का दमन कर सकेंगी?

कैपिटॉल हिल पर दंगाइयों के हमले से आज भारत के सामने यही प्रश्न उठ खड़े हुए हैं. इनके जवाब हमें तलाशने ही होंगे.

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