4 दिसंबर को जब ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव के नतीजे आए, तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट किया कि अब भाग्यनगर का भाग्य बदल रहा है. वास्तविकता ये है कि ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के नतीजों से ऐसा लग रहा है कि तेलंगाना की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के भाग्योदय की शुरुआत हो गई है.
इसके संकेत, वैसे तो पहली बार 2019 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिल गए थे, जब तेलंगाना से बीजेपी के 4 लोकसभा सांसद चुने गए थे. ये संकेत और मज़बूती से तब दिखने लगे, जब इसी साल नवंबर महीने में तेलंगाना की दुब्बका विधानसभा सीट पर हुए उप-चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार रघुनंदन राव ने सबको चौंकाते हुए टीआरएस और कांग्रेस के प्रत्याशियों को शिकस्त दे दी. दुब्बका विधानसभा सीट, तेलंगाना की सत्ताधारी टीआरएस का गढ़ मानी जाती थी. वहां, पर बीजेपी की जीत से साफ़ था कि भगवा पार्टी के लिए विस्तार के अपार अवसर तेलंगाना में हैं.
इसीलिए, पार्टी ने इस बार ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनावों में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी. और इसके नतीजे सामने हैं. पिछली बार केवल 4 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने बारह गुना अधिक सीटें जीती हैं.
वहीं, पिछली बार 99 सीटें जीतने वाली सत्ताधारी टीआरएस महज़ 55 सीटों पर सिमट गई.
नतीजा आने के बाद, बीजेपी के लगभग हर नेता ने इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की उपलब्धियों को दिया और उम्मीद जताई कि वर्ष 2023 में पार्टी यही परफ़ॉर्मेंस पूरे तेलंगाना में दोहराएगी.
हैदराबाद नगर निगम चुनाव के ये नतीजे बताते हैं कि तेलंगाना में राजनीतिक समीकरण तेज़ी से बदल रहे हैं. अलग तेलंगाना राज्य की लड़ाई के मुद्दे पर बनी टीआरएस पिछले सात सालों से बिना किसी मुक़ाबले के सूबे पर एकछत्र राज कर रही है. 2014 में औपचारिक बंटवारे से पहले हुए चुनाव में भी के. चंद्रशेखर की पार्टी को बहुमत मिला था. चंद्रशेखर राव जिन्हें केसीआर भी कहा जाता है, वो तेलंगाना की सत्ता में वापसी को लेकर इतने कॉन्फिडेंट थे कि 2019 में तय विधानसभा चुनाव को उन्होंने 2018 में ही करा लिया और विधानसभा की सत्तर प्रतिशत सीटों पर विजय हासिल की.
ये केसीआर का कॉन्फिडेंस ही था, कि उन्होंने दुब्बका विधानसभा सीट पर होने वाले उप-चुनाव के लिए प्रचार करने की ज़हमत नहीं उठाई. क्योंकि वो इस सीट को अपनी निजी सियासी जागीर समझते थे. दुब्बका के पड़ोस में ही उनकी अपनी विधानसभा सीट गजवाल है. उनके पावरफुल भतीजे टी. हरीशराव की सिद्दीपेट विधानसभा सीट भी पास में ही पड़ती है. केसीआर ने दुब्बका सीट की ज़िम्मेदारी हरीश राव को ही दी थी. मगर यहां के नतीजों ने सबको हैरान कर दिया. केसीआर के वारिस कहे जा रहे हरीश राव की सारी रणनीति धरी की धरी रह गई और दो बार यहां से चुनाव हारने वाले बीजेपी के रघुनंदन राव चुनाव जीत गए. बीजेपी की इस जीत के लिए कितनी अहमियत है, इसे इसी बात से समझ सकते हैं कि ख़ुद पीएम मोदी ने न सिर्फ़ ट्वीट करके इसकी बधाई दी बल्कि, बीजेपी हेडक्वार्टर में अपने भाषण के दौरान दुब्बका में बीजेपी की जीत का ज़ोर देकर ज़िक्र किया.
वैसे, बीजेपी ने दुब्बका उप-चुनाव में जीत के काफ़ी पहले ही ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी. कई प्रत्याशी तो 2016 में वहां के चुनाव के बाद ही घोषित कर दिए गए थे और ये उम्मीदवार अपने अपने इलाक़ों में प्रचार में जुट गए थे. इसकी वजह ये थी कि बीजेपी इससे पहले कभी भी हैदराबाद या तेलंगाना-आंध्र प्रदेश में एक बड़ी राजनीतिक हैसियत नहीं रखती थी. उसकी हालत पॉलिटिकल लैंडस्केप में महज़ एक फुटनोट सरीखी थी.
लेकिन, इस बार बीजेपी ने हैदराबाद चुनाव को तेलंगाना में अपने विस्तार का स्प्रिंग बोर्ड बनाने का फ़ैसला किया. इसके लिए उर्वर सियासी ज़मीन भी तैयार थी.
एक वक़्त पूरे आंध्र प्रदेश में पावरफुल रही कांग्रेस लगभग ख़त्म थी. अलग तेलंगाना राज्य बनवाने के बावजूद कांग्रेस उसका लाभ नहीं ले सकी थी. 2014 के चुनाव में उससे ज़्यादा सीटें टीडीपी ने जीती थीं. लेकिन, टीडीपी का तेलंगाना में जनाधार खिसक रहा था और चंद्रबाबू नायडू अपना फ़ोकस बचे हुए आंध्र प्रदेश पर लगा रहे थे.
कांग्रेस के ख़ात्मे और टीडीपी के सिकुड़ने के कारण तेलंगाना में बीजेपी के लिए विस्तार की काफ़ी संभावनाएं थीं. मगर, बीजेपी को एक ऐसे स्प्रिंगबोर्ड की ज़रूरत थी, जिससे वो ये जता सके कि तेलंगाना में केसीआर के एकछत्र राज्य का विकल्प वही है.
इसके लिए हैदराबाद से बेहतर मुकाम कोई और हो नहीं सकता था. बीजेपी की पॉलिटिक्स चमकाने के लिए यहां हर ज़रूरी सामान मौजूद था. ओल्ड हैदराबाद में 70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी. मुसलमानों के वक़्ता के रूप में असदउद्दीन ओवैसी और ओवैसी ख़ानदान की मौजूदगी से बीजेपी हिंदूवाद के नाम पर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश कर सकती थी और केसीआर के पूरे ख़ानदान के साथ साथ ओवैसी परिवार की तीन पीढ़ियों की राजनीति का विरोध भी परिवारवाद के नाम पर कर सकती थी.
हैदराबाद नगर निगम के दायरे में 4 ज़िले, लोकसभा की पांच सीट और 24 विधानसभा सीट आती हैं.
इसीलिए, बीजेपी ने ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में टॉप से बॉटम तक पूरी ताक़त लगा दी. प्रचार के लिए अमित शाह, जेपी नड्डा, स्मृति ईरानी, प्रकाश जावडेकर, योगी आदित्यनाथ और तेजस्वी सूर्या आए. तो देवेंद्र फड़णवीस और भूपेंद्र यादव जैसे बैकरूम मैनेजर्स पर्दे के पीछे से चुनावी रणनीति को नई धार और रफ़्तार देते रहे.
इलेक्शन लोकल भले था, मगर बीजेपी राष्ट्रवाद, घुसपैठ, पाकिस्तान-चीन, हिंदू मुसलमान जैसे अपनी पिच वाले मुद्दों को लेकर मैदान में उतरी. हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर करने का इशारा दिया. केसीआर और ओवैसी की ख़ानदानी राजनीति को निशाना बनाया.
बीजेपी के आक्रामक रुख़ को देखकर ख़ुद केसीआर को चुनाव मैदान में प्रचार के लिए उतरना पड़ा. जबकि इससे पहले चंद्रशेखर राव, नगर निगम के प्रचार में नहीं जाया करते थे.
दुब्बका में हार के बाद उन्होंने हैदराबाद चुनाव की ज़िम्मेदारी अपने बेटे और पार्टी के दूसरे धड़े के अगुवा केटीआर यानी के टी रामाराव को दे रखी थी.
एक तो हैदराबाद नगर निगम में क़रीब दस साल से राज करने की एंटी इनकंबेंसी और दूसरे तेलंगाना में भी राज्य बनने के बाद से लगातार सत्ता में रहने के कारण, टीआरएस के ख़िलाफ़ एक Fatigue फैक्टर था जिसका भरपूर लाभ बीजेपी ने उठाया.
हैदराबाद निगम के छह ज़ोन में से चार पर टीआरएस का क़ब्ज़ा था, तो चारमीनार और ख़ैराताबाद ज़ोन पर ओवैसी की पार्टी हावी थी. बीजेपी के पास यहां गंवाने के लिए कुछ नहीं था. इसीलिए पार्टी को 48 सीटों का शुद्ध मुनाफ़ा हुआ.
ओवैसी ने राजनीतिक कौशल दिखाते हुए अपना फ़ोकस कम सीटों पर चुनाव लड़ने पर रखा. पिछली बार उनकी पार्टी जहां 60 सीटों पर चुनाव लड़ी थी वहीं, इस बार AIMIM ने केवल 51 सीट पर अपने प्रत्याशी उतारे. स्ट्राइक रेट की बात करें, तो सबसे शानदार प्रदर्शन ओवैसी का ही रहा. उन्होंने 51 में से 44 सीट जीत ली. ये आंकड़ा 2016 के चुनाव के बराबर ही है.
वहीं, बीजेपी अपनी टैली को 12 गुना बढ़ाने में सफल रही.
ये जीत, 2023 के तेलंगाना असेंबली इलेक्शन में बीजेपी के लिए संजीवनी का काम करेगी. हैदराबाद में ज़बरदस्त प्रदर्शन के साथ ही बीजेपी ने ये साबित कर दिया है कि अब तेलंगाना में केसीआर के एकछत्र राज्य की चैलेंजर वही है. कांग्रेस को हैदराबाद में केवल 2 सीट पर जीत मिली है. ज़ाहिर है, आंध्र प्रदेश के बाद अब तेलंगाना में एक पॉलिटिकल फोर्स के तौर पर कांग्रेस का सफाया हो चुका है.
ऐसे में बीजेपी के सामने कम से कम केसीआर के चैलेंजर बनने का रास्ता बिल्कुल साफ है.
तेलंगाना में अपनी ताक़त बढ़ाकर बीजेपी, अपने ऊपर लगे नॉर्थ इंडियन पार्टी के टैग को ख़त्म करना चाहती है. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में पार्टी अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद, बीजेपी आगे नहीं बढ़ पा रही है.
ऐसे में उसके पास तेलंगाना में विस्तार का सुनहरा अवसर है. कर्नाटक के बाद तेलंगाना दूसरा दक्षिणी राज्य है, जहां पर बीजेपी पोल पोज़ीशन पर पहुंचने का सपना देख सकती है.
हैदराबाद चुनाव के सिम्बोलिज़्म को ऐसे भी समझ सकते हैं. 2024 के आम चुनाव तक बीजेपी के केंद्र की सत्ता में दस साल पूरे हो चुके होंगे. उसके ऊपर एंटी इनकम्बेंसी का दबाव होगा. ज़ाहिर है, ऐसे में उत्तरी भारत के राज्यों में पार्टी की सीटें भी कम होंगी.
इसकी भरपाई के लिए वो साउथ के राज्यों में अपने विस्तार पर पूरी ताक़त लगा रही है. मक़सद ये है कि अगर पूरी तरह तो नहीं, मगर नॉर्थ के लॉस को पार्टी साउथ में कुछ हद तक तो पूरा कर सके. और इसके लिए सबसे बढ़िया मौक़ा उसके पास तेलंगाना में ही है.
तेलंगाना में बीजेपी की ताक़त बढ़ेगी तो उसका रिपल इफेक्ट आंध्र और तमिलनाडु में भी देखने को मिल सकता है.
तेलंगाना में टीडीपी और कांग्रेस के लगातार छीजते जनाधार के बाद पूरे राज्य में टीआरएस को कोई चुनौती दे सकता है, तो बीजेपी ही है.
क्योंकि असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM पहले तो हैदराबाद तक ही महदूद है. और राजधानी के बाहर जहां उसकी थोड़ी बहुत पहुंच है, वो इस आरोप से और कमज़ोर हो जाती है कि उनके और केसीआर के बीच अंदरख़ाने का समझौता है.
ऐसे में अगर तेलंगाना में विपक्ष की भूमिका में फिलहाल कोई दिख रहा है, तो वो बीजेपी ही है. हैदराबाद में उसके शानदार परफॉर्मेंस से साफ़ है कि 2023 में केसीआर को कड़ी टक्कर के लिए तैयार हो जाना चाहिए.
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