जिस समय दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिका ने जो बाइडेन की शक्ल में अपना सबसे बुज़ुर्ग या उम्रदराज़ राष्ट्रपति चुना उसी दिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के एक राज्य बिहार में देश के सबसे युवा मुख्यमंत्रियों में से एक के चुनाव जीतने के संकेत मिले.
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर किए गए लगभग सभी एग्ज़िट पोल में राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले महागठबंधन की जीत के आसार दिखाए गए हैं. केवल अख़बार दैनिक भास्कर ने अपने एग्ज़िट पोल में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए की जीत की भविष्यवाणी की है.
अगर ये एग्ज़िट पोल सही साबित होते हैं, तो राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव बिहार के अगले मुख्यमंत्री बन सकते हैं. क्योंकि, महागठबंधन ने उन्हें ही मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है.
तेजस्वी यादव, चीफ़ मिनिस्टर पद की शपथ लेते हैं, तो वो भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्रियों में शुमार किए जाएंगे. हालांकि, वो सबसे कम उम्र में सीएम बनने का रिकॉर्ड तो नहीं बना सकेंगे.
क्योंकि, अब तक ये रिकॉर्ड पुडुचेरी के चीफ मिनिस्टर रहे एमओएच फ़ारुक़ के नाम है जिन्होंने 29 वर्ष की उम्र में मुख्यमंत्री का पद संभाला था. और तेजस्वी अगर बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद सीएम बनते हैं, तो उनकी उम्र 31 साल की होगी. एक रिकॉर्ड उनके नाम ज़रूर होगा कि वो किसी राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री होंगे और प्रफुल्ल कुमार महंत से भी आगे निकल जाएंगे.
तेजस्वी के नाम एक और रिकॉर्ड भी होगा. वो मुख्यमंत्री बनते हैं, तो भारत में ऐसा पहली बार होगा जब मां और पिता के बाद बेटा सीएम बनेगा.
भारतीय राजनीति में उच्च पद पर पहुंचते की औसत उम्र पचास के आस पास रही है. लंबे समय से ये चर्चा चलती रही है कि राजनीतिक दलों को अपने अपने यहां युवाओं को आगे बढ़ाना चाहिए. हालांकि, जहां भी युवाओं को मौक़ा मिला है, उन्होंने अच्छे प्रशासन की कोई बड़ी मिसाल नहीं पेश की है.
तेजस्वी को तो राष्ट्रीय जनता दल ने मजबूरी में चीफ मिनिस्टर पद का प्रत्याशी बनाया. क्योंकि, लालू यादव और राबड़ी यादव के पंद्रह साल का राज जंगलराज के तौर बदनाम है. लालू अभी ख़ुद जेल में हैं और उनकी ग़ैरमौजूदगी में राबड़ी के लिए चुनाव जीत पाना मुमकिन न होता. इसीलिए, आरजेडी ने इस बार युवा तेजस्वी पर दांव लगाया है.
तेजस्वी से पहले, उत्तर प्रदेश के 2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने भी समाजवादी पार्टी का प्रचार अभियान चलाया था. हालांकि, उस समय उनके पिता मुलायम सिंह यादव भी राजनीति में काफ़ी सक्रिय रहे थे और माना जा रहा था कि चुनाव बाद अगर पार्टी जीती तो मुलायम ही फिर से सीएम बनेंगे. लेकिन, 2012 में जब समाजवादी पार्टी ने पहली बार अकेले यूपी विधानसभा में बहुमत हासिल किया, तो इस सफलता का सेहरा अखिलेश यादव के सिर बांधा गया और पार्टी ने मुलायम को राज़ी करके अखिलेश को सीएम बनवा दिया.
अखिलेश ने अपने पांच वर्ष के शासन काल में यूपी में कोई ख़ास कमाल नहीं किया. अपने राज के आख़िरी डेढ़ दो साल में तो वो पार्टी की अंदरूनी लड़ाई से ही जूझते रहे. अखिलेश पर इल्ज़ाम लगा कि उन्होंने अपने पिता और चाचा को बेदख़ल करके सरकार के बाद, पार्टी पर भी क़ब्ज़ा कर लिया. चाचा शिवपाल यादव ने तो अलग पार्टी ही बना ली.
अखिलेश के नेतृत्व में जब 2017 में दोबारा विधानसभाव चुनाव लड़ने की बारी आई, तो समाजवादी पार्टी को जीत का आत्मविश्वास ही नहीं था. अखिलेश ने कांग्रेस से समझौता किया. उन्होंने राहुल गांधी के साथ मिलकर यूपी के लड़के के नाम पर प्रचार अभियान चलाया. लेकिन, उनकी पार्टी पचास से भी कम सीटों पर सिमट गई.
इसके दो साल बाद 2019 के आम चुनाव में एक बार फिर अखिलेश यादव ने नया साझीदार तलाशा. मायावती के साथ लगभग चौथाई सदी की दुश्मनी भुलाकर एसपी-बीएसपी ने मिलकर चुनाव लड़ा. तब भी अखिलेश यादव, कोई कमाल करने में नाकाम रहे. बीएसपी की सीटें तो शून्य से बढ़कर दस हो गईं. अखिलेश यादव ख़ुद अपनी पार्टी को महज़ पांच सीट जिता सके. और चुनाव के फौरन बाद मायावती ने ये कहकर उनसे पीछा छुड़ा लिया कि समाजवादी पार्टी से गठबंधन करके बीएसपी को कोई फ़ायदा नहीं हुआ.
प्रशासन के स्तर पर भी अखिलेश यादव के नाम कोई बड़ी कामयाबी नहीं दर्ज हो सकी. अखिलेश अपने कार्यों के बख़ान के नाम पर महज़ दो योजनाओं का ज़िक्र कर पाते हैं- एक तो आगरा से लखनऊ तक का हाइवे और दूसरा इसी हाइवे पर लड़ाकू विमान की लैंडिंग.
इसके अलावा उनके कार्यकाल पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे. अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग में दलाली खाने के इल्ज़ाम लगे. लिहाज़ा, अखिलेश के लिए साल 2022 के विधानसभा चुनाव में सत्ता में वापसी की राह मुश्किल दिख रही है.
1980 के दशक में प्रफुल्ल कुमार महंत, देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे. वो असम के छात्र आंदोलन से पैदा हुए नेता थे. राजीव गांधी सरकार के साथ समझौता करने के बाद, असम की जनता ने उन पर भरोसा जताया और राज्य की बागडोर उनके हाथ में सौंप दी. लेकिन महंत और उनकी युवा टीम असम की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने में बुरी तरह नाकाम रही. असम में न तो जातीय उग्रवाद पर लगाम लग सकी और न ही महंत की सरकार वहां बेहतर प्रशासन दे सकी. महंत, वैसे तो दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे लेकिन आज भी असम को शांतिपूर्ण हालात और अच्छे प्रशासन का इंतज़ार है. वहीं, महंत को उनके अपने दल असम गण परिषद तक से निकाल बाहर किया गया था.
एक और नेता, जिन्होंने युवा मुख्यमंत्री के तौर पर काफ़ी शोहरत कमाई थी, वो हैं उमर अब्दुल्ला. उमर अब्दुल्ला वर्ष 2009 में कांग्रेस के साथ साझा सरकार में सीएम बने थे. उस समय उनकी उम्र केवल 38 वर्ष थी. परिवार के दबाव में उनके पिता फ़ारुक़ अब्दुल्ला ने सीएम पद पर अपना दावा छोड़ा था.
माना जा रहा था कि उमर अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर को एक नई पहचान देंगे. विकास की नई धारा बहाएंगे. लेकिन, मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही उमर की असफलताओं का दौर शुरू हो गया था. राज्य में हिंसक आतंकवाद अपने शिखर पर पहुंच गया. 2010 में आतंकवाद और अलगाववादी आंदोलन का एक लंबा दौर उनके राज में चला था. जिसके बाद, जनता को लुभाने के लिए उन्होंने अलगाववादी रवैया अख़्तियार कर लिया था. उमर अब्दुल्ला के शासन काल में राज्य की विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया और जम्मू-कश्मीर का 1952 से पहले का स्टेटस बहाल करने की मांग की. जिसमें चीफ मिनिस्टर को सदर-ए-रियासत कहा जाता था. वो बार बार पाकिस्तान से बातचीत करने की मांग भी करते रहे और अपने कार्यकाल के आख़िरी दिनों में तो वो इतने अलोकप्रिय हो गए थे कि 2015 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा.
युवा मुख्यमंत्रियों की फ़ेहरिस्त में एक नाम शरद पवार का भी आता है, जो 38 साल की उम्र में पहली बार महाराष्ट्र के सीएम बने थे. ये उनकी युवा नेता की छवि से ज़्यादा राजनीतिक कौशल का ही कमाल था कि वो अपने समर्थक विधायकों को लेकर पार्टी से अलग हो गए और अपनी सरकार बना ली. शरद पवार वैसे तो चार बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे. लेकिन, उनके कार्यकाल को कभी भी अच्छे प्रशासन के लिए नहीं जाना गया.
इस समय आंध्र प्रदेश के चीफ मिनिस्टर जगन मोहन रेड्डी भी युवा सीएम कहे जाते हैं. लेकिन जगन मोहन पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर इल्ज़ाम हैं. और अब तक उनकी उपलब्धियों की डायरी में कोई उल्लेखनीय कार्य दर्ज नहीं है. सिवा अपने राजनीतिक विरोधी चंद्रबाबू नायडू की सरकार के ख़िलाफ़ बदले की भावना से की गई कार्रवाइयों के.
ऐसे में तेजस्वी यादव का सबसे युवा मुख्यमंत्री बनना अगर एक सफलता है, तो बहुत बड़ी चुनौती भी. वो अपने पिता लालू यादव के साए से बाहर आकर अपनी ख़ुद की छवि के आधार पर सीएम की गद्दी तक पहुंचेंगे. अपने उन वादों के बूते सत्ता हासिल करेंगे, जो उन्होंने बिहार की जनता से किए हैं.
पर, बिहार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति, केंद्र सरकार के साथ उनकी पार्टी के 36 के आंकड़े के चलते, तेजस्वी अगर चीफ मिनिस्टर बन जाते हैं, तो भी उनकी राह बेहद मुश्किल होगी. सबसे युवा मुख्यमंत्री के तौर पर उनके कंधों पर ज़िम्मेदारियों का भारी बोझ होगा और ये बोझ उठाकर सफल प्रशासन की मंज़िल तक पहुंचना उनकी असली चुनौती बनेगा.
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