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CoVaxin: तो क्‍या अनिल विज को Placebo दिया गया था? 

Amit

नई दिल्‍ली 06 Dec, 2020 10:34 pm

हरियाणा के स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री अनिल विज 20 नवंबर को कोविड वैक्‍सीन के ट्रायल में टीका लगवाए थे और उसके 15 दिन बाद वे कोविड पॉजिटिव पाए गए. अनिल विज के कोविड पॉजिटिव पाए जाने के बाद कोविड वैक्‍सीन को लेकर तरह तरह की बातें की जाने लगी. आखिर ऐसा क्‍यों हुआ? क्‍या दिया गया वैक्‍सीन सही नहीं था या कोई और बात है जिसकी जानकारी आपके और हमारे पास नहीं है. इस बात को समझने के लिए पहले हमें यह जानना होगा कि आखिकर इस वैक्‍सीनेशन का विज्ञान क्‍या है? 

वैक्‍सीनेशन का विज्ञान 
कोई भी दवाई या वैक्सीन आम लोगों के लिए उपलब्ध होने से पहले परीक्षण के दौर से गुजरती है. चाहे वो टीका/दवाई छोटी हो या बड़ी. चूंकि यह महामारी बड़ी है तो इसके परीक्षण की खबरें ज्यादा हैं और सबके लिए महत्वपूर्ण हैं. 

  1. इस परीक्षण के चरण में सबको असली दवाई/टीका नहीं दिया जाता बल्कि एक निश्चित अनुपात में ही दिया जाता है.
  2. अमूमन यह 50:50 होता है. यानी परीक्षण में अगर 100 लोग शामिल हैं तो उनमें 50 को ही रेंडमली असली दवाई/टीका दिया जाएगा और शेष 50 को Placebo (प्लेसिबो) दिया जाता है.
  3. प्लेसिबो एक तरह की फ़र्ज़ी दवाई/टीका है. यह दिखने में हू-ब-हू असली जैसा दिखता है लेकिन इसमें होता कुछ नहीं है. टीके के मामले में इसे आप महज़ स्लाइन वाटर मान सकते हैं. तो शेष 50 को यही दे दिया जाता है.

अब सवाल उठता है कि क्या टीके का परीक्षण करने वाले संस्थान को इसके बारे में जानकारी होती है कि किसे असली टीका/दवाई दी जा रही है और किसे नहीं तो इसका जवाब है - नहीं. उन्हें कोई जानकारी नहीं होती. 

यह जानकारी सिर्फ दवाई-टीका निर्माता को पता होती है. जैसे ICMR-भारत बॉयोटेक ने जो CoVaxin बनाई है, उसका परीक्षण देशभर के चुनिंदा अस्पतालों में हो रहा है. दिल्ली के AIIMS में ही इसका परीक्षण चल रहा है तो एम्स के पास आए (मान लीजिए) 400 इंजेक्शन्स में कितनी CoVaxin हैं और कितने प्लेसिबो, ये जानकारी एम्स को नहीं है. ये सभी इंजेक्शन एक-साथ, होते हैं. एकदम एक जैसे दिखते हैं. उन सबमें अपनी एक यूनिक आईडी होती है और जब कोई वॉलंटियर उनके पास जाता है तो कंप्यूटर में उस वॉलंटियर की जानकारी दर्ज की जाती है और वह कंप्यूटर निर्माता कंपनी के डेटा से रेंडमली उठाकर इंजेक्शन की आईडी जेनेरेट करता है.
 
इसमें इंजेक्शन देने वाले डॉक्टर की बस इतनी सी भूमिका होती है कि वह उस आईडी के इंजेक्शन को उस वॉलंटियर को लगा देता है.

अब न तो वॉलंटियर और न ही डॉक्टर को पता है कि लगाया गया इंजेक्शन असली टीका है. ऐसा इसलिए किया जाता है कि वॉलंटियर इंजेक्शन लेने के बाद अपने आपको सुपरहीरो न समझे और न ही लापरवाही बरते. 
 
दूसरा, निर्माता कंपनी परीक्षण के अंत में दोनों परिणामों के आधार पर निष्कर्ष निकालती हैं कि टीका कितना सफल-असफल है, वह कितनी प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर पा रहा है. 

हरियाणा के स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री अनिल विज को कोरोना होने के पहले ही ICMR ने बताया था कि यह randomised double-blind placebo-controlled ट्रायल है. ट्रायल की इस विधि में न तो वैक्सीन लेने वाला और न ही वैक्सीन देने वाला जानता है कि उसे क्या दिया जा रहा है- असली वैक्सीन या प्लेसिबो.

इसीलिए अनिल विज वॉलंटियर बनकर परीक्षण में शामिल हुए हैं, उन्हें या उनके डॉक्टरों को भी नहीं पता कि वास्तव में उन्हें क्या दिया गया था. असली वैक्सीन या प्लेसिबो...? इसलिए यह मान लेना कि वैक्‍सीन असफल हो गया या आप उसपर संदेह करें, इससे बेहतर है कि आप विज्ञान पर भरोसा बनाए रखें. अभी randomised double-blind placebo-controlled ट्रायल चल रहा है. अनिल विज उसी ट्रायल में शामिल हुए थे.

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