‘हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा…’ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता की ये लाइन, बिहार विधानसभा चुनाव के रनर अप लीडर तेजस्वी यादव पर बिल्कुल फिट बैठती है.
मंगलवार, 10 नवंबर को जब बिहार विधानसभा के नतीजे आए, तो मंज़र में तेजस्वी यादव कहीं भी नहीं थे. उनकी पार्टी वोटों की गिनती में गड़बड़ी के आरोप लगा रही थी. और, नीतीश कुमार की सरकार से लेकर चुनाव आयोग पर अटैक की अगुवाई, तेजस्वी यादव की पार्टी के सांसद मनोज कुमार झा कर रहे थे.
देर रात तक चले सस्पेंस के बाद फ़ाइनल नतीजे आए, तो महागठबंधन, सीट टैली में दूसरे नंबर पर रह गया जबकि तमाम एग्ज़िट पोल ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले विपक्षी महागठबंधन की जीत की भविष्यवाणी की थी.
ऐसा लगा कि तेजस्वी यादव भी अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की तरह चुनावी हार से सदमे में आ गए हैं. अगले दिन, बीजेपी ने पीएम मोदी के नेतृत्व में मिली इस जीत का भव्य जश्न मनाया और अपनी जीत को 15 साल के राज के बावजूद हासिल होने वाली ज़बरदस्त उपलब्धि कहते हुए अपनी पीठ थपथपाई.
बीजेपी के जश्न के अगले दिन, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मीडिया के सामने आए. उन्होंने बिहार में एनडीए की जीत पर संतोष जताया और कहा कि मुख्यमंत्री का फ़ैसला एनडीए के विधायक करेंगे. ज़ाहिर है, सीटों की फ़ेहरिस्त में तीसरे नंबर पर रहने वाले नीतीश कुमार का पद भले बच गया, मगर कद निश्चित रूप से छोटा हो गया था.
चुनाव के नतीजे आने के दो दिनों बाद आख़िरकार तेजस्वी यादव सामने आए. पटना में आरजेडी विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद, तेजस्वी यादव ने बेहद आक्रामक रुख़ अपनाते हुए कहा कि बिहार में महागठबंधन की जीत हुई है और एनडीए ने जनादेश को सत्ता में रहने का लाभ उठाते हुए चुरा लिया है.
प्रधानमंत्री मोदी ने एक दिन पहले बीजेपी की जीत में साइलेंट वोटर के योगदान का ज़िक्र किया था. तेजस्वी ने सीधे प्राइम मिनिस्टर पर निशाना साधते हुए कहा कि ये साइलेंट वोटर क्या सीधे जाकर पीएम मोदी के कान में बोल आता है कि उसने बीजेपी को वोट दिया. उन्होंने बीजेपी और जेडीयू की जीत के दावे को ख़ारिज करते हुए उम्मीद जताई कि भविष्य में सरकार महागठबंधन की ही बनेगी.
हार के दो दिन बाद बेहद आक्रामक तेवर दिखाकर तेजस्वी ने साफ़ कर दिया है कि बिहार के राजनीतिक भविष्य का सबसे बड़ा चेहरा वही हैं.
महागठबंधन की जीत का जो दावा वो कर रहे थे, वो हिंदुस्तान की इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में ऊपरी तौर पर भले सही न लगे. पर, आप आंकड़ों के सागर में डुबकी लगाएं, तो तेजस्वी का दावा यक़ीनी लगने लगता है.
भारत में जीत और हार का फ़ैसला फ़र्स्ट पास्ट पोस्ट सिस्टम से होता है. यानी, किसी सीट पर जिस प्रत्याशी को सबसे अधिक वोट मिले, वही विजेता. ऐसे में सरकार के ख़िलाफ़ गए वोट अगर बंट जाते हैं, तो इसका फ़ायदा उसे मिलता है.
बिहार के चुनाव में यही देखने को मिला है. जीत का दावा करने वाली बीजेपी और जेडीयू, उनके सहयोगी दलों HAM और VIP के वोट मिला दें, तो उनके विरोध में पड़े कुल वोटों से बहुत कम हैं.
पिछले चुनाव की तुलना में बीजेपी के वोट भी में भी पांच फ़ीसद की गिरावट आई है, और जेडी यू का वोट प्रतिशत भी क़रीब पौने दो फ़ीसद कम हुआ है.
ज़ाहिर है, ये आंकड़े जीत हार तो नहीं तय करते, मगर बिहार के वोटर का मूड ज़रूर बताते हैं. और ये मूड बिल्कुल स्पष्ट तौर पर एंटी एनडीए है. भले ही प्रधानमंत्री मोदी साइलेंट वोटर के बूते ऐतिहासिक जीत का दावा करते हों, मगर हक़ीक़त ये है कि बिहार में सत्ताधारी गठबंधन के ख़िलाफ़ ज़्यादा वोट पड़े हैं. ये तो बस फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम की ख़ूबी कहें या ख़ामी कि एनडीए, 125 सीटों के साथ सरकार बनाने जा रहा है.
जहां तक वोट प्रतिशत की बात है, तो बिहार की प्रमुख पार्टियों का वोट परसेंटेज इस तरह है-
इसी तरह कुल क़रीब चार करोड़ वोट में तीनों बड़ी पार्टियों को मिले वोट देखें, तो इसमें भी तेजस्वी यादव की पार्टी क्लियर विनर है.
पिछले चुनाव के मुक़ाबले वोट प्रतिशत में घट बढ़ की बात है, तो बीजेपी के वोट में क़रीब पांच परसेंट (4.96%) की गिरावट आई है तो उसकी सहयोगी JDU के वोट 1.44% कम हुए हैं. इन दोनों ही पार्टियों के मुक़ाबले RJD का वोट प्रतिशत 4.79 प्रतिशत बढ़ा है. हां, जहां तक सीटों की संख्या की बात है, तो RJD की पांच सीट घटी हैं तो JDU की 28. वहीं बीजेपी की 21 सीट बढ़ गई हैं.
तेजस्वी अगर बिहार इलेक्शन के रनर अप साबित हुए है, तो उसके पीछे के कुछ कारण ऐसे समझिए-
ज़ाहिर है, बिहार के इलेक्शन में बीजेपी और एनडीए की जीत, एंटी इनकम्बेंसी और ‘जंगलराज के युवराज’ पर जीत कम और सरकार से नाराज़ लोगों के वोटों के बंटवारे का नतीजा ज़्यादा है.
ऐसे में तेजस्वी यादव अगर ये कहते हैं कि चुनाव तो असल में महागठबंधन ने ही जीता है, तो उनका ये तर्क ग़लत नहीं है.
जिस साइलेंट वोटर की मुख्यधारा के मीडिया से लेकर पीएम नरेंद्र मोदी तक ने चर्चा की, उसने वोट जिताया, ये बात आंकड़ों की हक़ीक़त से मेल नहीं खाती.
विश्लेषकों ने बिहार इलेक्शन के पहले, दूसरे और तीसरे राउंड में महिलाओं के मतदान के बढ़ते प्रतिशत का सीधा संबंध, हर राउंड के साथ बीजेपी की बढ़ती सीट से जोड़ा है. और इसी के हवाले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साइलेंट वोट का मिथक गढ़ते हैं.
मगर, ज़रा आंकड़ों की बारीक़ी से पड़ताल करें, तो तस्वीर ऐसी निकलती है. बिहार इलेक्शन के सेकेंड और थर्ड राउंड में सरकार के ख़िलाफ़ पड़े वोटों का बंटवारा बढ़ता गया. यानी, जिन लोगों ने एनडीए या बीजेपी-JDU-HAM-VIP के प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ वोट डाले, वो अलग अलग पार्टियों के खाते में गए. यानी की नीतीश और नरेंद्र मोदी की पार्टियों के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ पड़े वोट, पप्पू यादव के नेतृत्व वाली जनअधिकार पार्टी या उसके सहयोगियों, उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाले, बीएसपी और AIMIM के गठबंधन, महागठबंधन और अन्य दलों के बीच बंट गए. और फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम का नतीजा ये हुआ कि नीतीश सरकार के खाते में जो वोट पड़े, उसकी तुलना में सत्ताधारी गठबंधन के ख़िलाफ़ पड़े वोट बंट गए और एनडीए ने कई सीटें बेहद क़रीबी मुक़ाबलों में जीत लीं.
महागठबंधन और NDA के बीच कुल वोटों का अंतर महज़ साढ़े बारह हज़ार वोट का रहा. इससे कई गुना अधिक वोट लोक जनशक्ति पार्टी या असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी के खाते में चले गए और चुनाव में जीत, NDA की मानी गई.
ऐसे में अगर, तेजस्वी यादव, पीएम मोदी के साइलेंट वोटर के सपोर्ट पर सवाल उठाते हैं, तो ग़लत नहीं.
भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के नियम कहते हैं कि तेजस्वी यादव हारे हैं. लेकिन, अगर ये मुक़ाबला NDA और महागठबंधन के बीच डायरेक्ट फाइट का होता, तो यक़ीनी तौर पर जीत तेजस्वी यादव की हुई है. वैसी सूरत में साइलेंट वोटर का टोटल सपोर्ट भी नरेंद्र मोदी को चुनावी जीत नहीं दिला पाता.
तेजस्वी यादव युवा हैं. उन्होंने महज़ 31 बरस की उम्र में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार जैसे मंझे हुए नेताओं को ज़बरदस्त चुनावी टक्कर दी है.
चुनावी सभाओं में उनका वोटर से कनेक्ट देखते ही बनता था. लोकल भाषा में वोटर से इंटरएक्टिव संवाद उनकी हर रैली को जानदार बना देता था.
तेजस्वी के दस लाख नौकरियां देने के वादे ने भी उनके पक्ष में माहौल बनाने का इलेक्ट्रिफाइंग इफेक्ट डाला.
पिता लालू यादव की दाग़दार छवि, जंगलराज की भयावाह यादगार के बावजूद, तेजस्वी ने सियासी अनुभवहीनता से पार पाते हुए शानदार प्रदर्शन किया है. उम्र भी उनके साथ खड़ी है. महज़ 31 बरस की आयु में तेजस्वी, बिहार में नीतीश कुमार के वैसे चैलेंजर बन गए हैं, जैसा कभी उनके पिता भी नहीं दे पाए. नीतीश के साथ देश के ग्लैडिएटर नेता कहे जाने वाले नरेंद्र मोदी का भी साथ था. जिनके कद के आगे आज भारत का हर नेता बौना नज़र आता है. इसके बावजूद, तेजस्वी यादव ने ज़बरदस्त चुनावी प्रदर्शन किया.
उन्होंने जंगलराज के युवराज जैसे तानों, पिता की आठ नौ संतानों के इल्ज़ामों, और पढ़ाई लिखाई में कोई ख़ास कमाल न करने के आरोपों के बावजूद, बेहद मैच्यौर पॉलिटिक्स की.
जब भी विरोध से कोई विवादित बयान आया, तो तेजस्वी ने उसे डिफरेंट डायरेक्शन में ले जाकर अपना अलग नैरेटिव सेट किया. ये जताता है कि ये चुनाव तेजस्वी हारे ज़रूर हैं, लेकिन उन्होंने अपनी फाइटिंग स्पिरिट, और पॉलिटिकल मैच्योरिटी का ज़बरदस्त कॉम्बिनेशन पेश किया है.
बिहार के युवा को तेजस्वी का ये हैंड्स ऑन एप्रोच, सहज सुगम भाषा, जुमला विहीन भाषण पसंद आया है. इस बार के चुनाव के टोटल वोट का लगभग एक चौथाई मत हासिल करके तेजस्वी ने अपनी कम उम्र के बावजूद बड़े राजनीतिक कद का एहसास कराया है.
पूरे चुनाव में तेजस्वी यादव आत्मविश्वास से लबरेज़ दिखे. हार के बाद भी उन्होंने कॉम्बैटिव मोड में ही बात की. और पॉलिटिकल फाइट को विरोधियों के खेमे में ले जाने का साहस दिखाया.
ज़ाहिर है, तेजस्वी यादव हिंदुस्तान की राजनीति में लंबी रेस के खिलाड़ी मालूम होते हैं. सिर्फ़ 31 वर्ष की उम्र में बिहार में चैलेंजर बनकर, सबसे ज़्यादा वोट हासिल करके, कद्दावर पिता के साए से हटकर अपनी अलग पहचान गढ़ना, तेजस्वी की मामूली उपलब्धि नहीं है.
उन्होंने हार में भी एक ग्रेस और फाइटिंग स्पिरिट दिखाई है. ऐसे में आने वाले समय में पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी की कविता की ये पंक्तियां उनका मार्गदर्शन करती रहेंगी…
"हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा…"
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