हिन्दू धर्म में संतान की कामना, वंश वृद्धि और उसकी सुख-समृदि्ध के लिए व्रत रखने का विधान हैं. ऐसे ढेरों व्रत हैं, जिन्हें मां अपनी संतान के लिए रखती है. इन्हीं में से एक है जीवित्पुत्रिका व्रत (Jivitputrika Vrat). इस व्रत को जितिया (Jitiya) के नाम से भी जाता है. जितिया व्रत बेहद कठिना माना जाता है और छठ व्रत की तरह पूरे तीन दिन तक चलता है. व्रत के दूसरे दिन यानी कि मुख्य दिन माताएं अपने पुत्रों के लिए पूरे दिन और पूरी रात निर्जला रहकर उपवास करती हैं. यह व्रत मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में मनाया जाता है.
जीवित्पुत्रिका कब मनाया जाता है?
हिन्दू पंचांग के अनुसार अश्विन माह की कृष्ण पक्ष अष्टमी को जीवित्पुत्रिका या जितिया का व्रत किया जाता है. ग्रेगोरियन कैलेंडर के मुताबिक यह व्रत हर साल अगस्त या सितंबर के महीने में आता है.
जीवित्पुत्रिका की तिथि और शुभ मुहूर्त
जीवित्पुत्रिका की तिथि: 10 सितंबर 2020
अष्टमी तिथि प्रारंभ: 10 सितंबर 2020 को सुबह 2 बजकर 5 मिनट से
अष्टमी तिथि समाप्त: 11 सितंबर 2020 सुबह 3 बजकर 34 मिनट तक
जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व
जीवित्पुत्रिका को जितिया, जिउतिया या जीमूत वाहन के नाम से भी जाना जाता है. माताएं इस को व्रत पुत्र की लंबी उम्र, सुख-समृद्धि और आरोग्य के लिए रखती हैं. जीवित्पुत्रिका व्रत कठिन व्रतों में से एक है. इस व्रत में महिलाएं 33 घंटे तक निर्जला रहकर कठिन नियमों का पालन करते हुए व्रत पूर्ण करती हैं. अश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है. यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है.
कैसे रखा जाता है जिउतिया का व्रत
जितिया में तीन दिन तक उपवास किया जाता है.
- पहला दिन: जितिया व्रत में पहले दिन को नहाय-खाय कहा जाता है. इस दिन महिलाएं सुबह-सवेरे उठकर गंगा में स्नान करती हैं और व्रत का संकल्प लेती हैं. अगर पवित्र नदी में स्नान संभव न हो तो आप अपने नहाने के जल में गंगाजल की कुछ बूंदे मिलाकर भी स्नान कर सकती हैं. इस दिन महिलाएं सिर्फ एक ही समय भोजन करती हैं. भोजन पूरी तरह से सात्विक होता है. रात के समय छत पर जाकर चारों दिशाओं में कुछ खाना रख दिया जाता है. यह खाना चील और सियारिन के लिए प्रतीक रूप में रखा जाता है.
- दूसरा दिन: व्रत में दूसरे दिन को खुर जितिया कहा जाता है. यही व्रत का विशेष व मुख्य दिन है जो कि अष्टमी को पड़ता है. इस दिन महिलाएं निर्जला रहती हैं. महिलाएं पूरे दिन और पूरी रात निर्जला रहकर उपवास करती हैं.
- तीसरा दिन: व्रत के तीसरे दिन पारण करने के बाद व्रती महिला भोजन ग्रहण करती है. महिलाएं भोजन में विशेष रूप से नोनी का साग और मडुआ की रोटी खाती हैं.
जिउतिया व्रत कथा
जिउतिया व्रत की कथा महाभारत काल से संबंधित है. कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद अश्वथामा अपने पिता की मृत्यु की वजह से क्रोध में था. वह अपने पिता की मृत्यु का पांडवों से बदला लेना चाहता था. एक दिन उसने पांडवों के शिविर में घुस कर सोते हुए पांडवों के बच्चों को मार डाला. उसे लगा था कि ये पांडव हैं, लेकिन वो सब द्रौपदी के पांच बेटे थे. इस अपराध की वजह से अर्जुन ने उसे गिरफ्तार कर लिया और उसकी मणि छीन ली. इससे आहत अश्वथामा ने उत्तरा के गर्भ में पल रही संतान को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया. लेकिन उत्तरा की संतान का जन्म लेना जरूरी था. इस वजह से श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्य का फल उत्तरा की गर्भ में मरी संतान को दे दिया और वह जीवित हो गया. गर्भ में मरकर जीवित होने के वजह से उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और यही आगे चलकर राज परीक्षित बने. कहते हैं कि तब से ही इस व्रत को रखा जाता है.
जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है. कथा इस प्रकार है: गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बड़े उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय उन्हें राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु उनका मन राज-पाट में नहीं लगता था. वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया. एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया, 'मैं नागवंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है. पक्षिराज गरुड़ के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है. आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है." जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा, "डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध-शिला पर लेटूंगा."
इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए. अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुड़ बड़े आश्चर्य में पड़ गए. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड़ जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड़ जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.
Leave Your Comment