अपने फोन नीचे रख दो और अपना डिजिटल डिटॉक्स होने दो. ये वो असंभव सा लगने वाला आह्वान है जो एक जर्मन फिल्म द्वारा 51वें इफ्फी महोत्सव में किया गया है. इसे गोवा में आयोजित हो रहे 51वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के इंटरनेशनल सिनेमा खंड में प्रदर्शित किया गया है.
इस फिल्म का नाम ‘एन इम्पॉसिबल प्रोजेक्ट’है और नाम के अनुरूप शायद ऐसा कर पाना अपने आप में असंभव बात हो, खासकर एक ऐसी दुनिया में जहां प्रत्येक सेकेंड, जीवन का हर क्षेत्र डिजिटल तकनीकों, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और इंटरनेट ऑफ थिंग्स से प्रभावित हो रहा है. दुनिया को बहुत जरूरी पुकार लगाते हुए ये फिल्म मनोरंजक ढंग से हमारे डिजिटल जीवन में एनालॉग के पुनर्जागरण के बारे में बताती है. ये फिर से वास्तविक चीजों के प्यार में पड़ने का एक शानदार निमंत्रण है.
निर्देशक जेन्स म्यूरर द्वारा किया गया भावुक आह्वान है कि हम फिर से वास्तविक बनें, फिर से प्रेम पत्र लिखना शुरू करें. फिल्म के एक विशेष प्रदर्शन के बाद, 22 जनवरी 2021 को गोवा के महोत्सव स्थल पर एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा, “लोग एक दिन महसूस करेंगे कि इंसान के तौर पर, हम महज तकनीक से भी अधिक कुछ और हैं. हम जीवित हैं, हम जुड़े रहना चाहते हैं, और हम वास्तविक दुनिया में रहना चाहते हैं. इस लिहाज से मेरी फिल्म लोगों को निमंत्रण है कि वे फिर से असली हो जाएं और फिर से प्रेम पत्र लिखना शुरू करें. ये न्यौता है कि अख़बारों या किताबों को उनके मूल स्वरूप में पढ़ें, डिजिटल रूप में नहीं.”
इस नए डिजिटल युग में अपनी फिल्म के महत्व को सही ठहराने की कोशिश में जेन्स पूछते हैं, “डिजिटल जीवन में बहुत सी बातें अच्छी हैं, लेकिन क्या आप चाहते हैं कि सब कुछ डिजिटल हो जाए?" वे कहते हैं, "मेरी फिल्म ज़रा असामान्य सी है. ये एक खुशनुमा फिल्म है जो उपाय देती है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये फिल्म एक कदम पीछे जाने के बारे में नहीं है, बल्कि एक कदम आगे ले जाने के बारे में है. मेरा आइडिया लोगों को ये एहसास दिलाने का था कि जीवन में कुछ भौतिक या वास्तविक चीजें भी हैं. मसलन, अगर मैं एक एनालॉग कैमरा से कुछ तस्वीरें खींचता हूं तो 20 साल बाद भी वो तस्वीरें मेरे दराज में होंगी क्योंकि हमें हार्ड कॉपी मिलती है. जिन तस्वीरों को हम मोबाइल पर लेते हैं, हम उन्हें अपने पास रखते नहीं हैं और जब हम नया फोन लेते हैं तो वे बस गायब हो जाती हैं.”
उनके दिमाग में इस फिल्म का विचार कैसे आया? इसेजेन्स ने एक कहानी से समझाया. कहानी एक ऐसे वैज्ञानिक की जो पोलरॉइड कैमरा के आखिरी कारखाने को बचाने के मिशन पर निकला है. उन्होंने बताया, “मैं इस जुनूनी, दीवाने ऑस्ट्रियाई आदमी से उसी साल मिला था जब आईफोन दुनिया के सामने पेश किया गया था. किसी प्रकार से इस दीवाने इंसान का ख़याल था कि उसे इस आखिरी पोलरॉइड कारखाने को बचाना चाहिए. हर दूसरे इंसान ने ये कहते हुए उसे रोकने की कोशिश की कि तुम पागल तो नहीं हो गए हो. डिजिटल ही अब नई दुनिया है. लेकिन फिर भी वो इंसान नहीं रुका और अपने मिशन पर गया. मैंने सात साल तक उसका पीछा किया. मेरी फिल्म उसी की कहानी दिखाती है. और निश्चित रूप से, जाहिर कारणों से मैंने इस फिल्म को डिजिटल पर नहीं शूट किया बल्कि पारंपरिक फिल्म फॉर्मेट में शूट किया - एक पूरी तरह से असली 35एमएम फिल्म प्रिंट पर.”
इन निर्देशक के अनुसार, इफ्फी में दिखाई जाने वाली ये एकमात्र ऐसी फिल्म है जिसे 35एमएम पर शूट किया गया है. जेन्स ने कहा कि, “फिल्म के प्रदर्शन के बाद इफ्फी में भी इसकी प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी हॉलैंड और पोलैंड में लोगों की थी. ऐसा अनुमान भी था क्योंकि लोगों के लिए डिजिटल ही नई दुनिया है.”
जेन्स ने कहा कि उन्होंने ये फिल्म इसलिए नहीं बनाई क्योंकि वे पुराने जमाने वाले आदमी हैं. उन्होंने कहा, “मेरी फिल्म गुजरे जमाने की यादों के बारे में बिल्कुल नहीं है. ये इस बारे में है कि कैसे हमें थोड़ा और सोचने की ज़रूरत है, कैसे हमें थोड़ा धीमा होने की जरूरत है और इस बारे में ज्यादा जागरूक होने की जरूरत है कि हम क्या कर रहे हैं. हमें सहूलियत के विचार का विरोध करने की जरूरत है.”
इंटरनेट के कारण सबकुछ तेज और आसान है, इस बात से पूरी तरह नहीं लेकिन कुछ सहमत होते हुए जेन्स ने ध्यान दिलाया, “मुझे नहीं लगता कि ये बात पूरी तरह से सच है. ये कुछ मायनों में अच्छा है और कुछ लिहाज से बुरा है. ये जरूरी है कि कुछ असल चीजों को वापस लिया जाए क्योंकि इंटरनेट हमें खराब चीजें भी दे रहा है– खराब स्वास्थ्य, खराब प्रेम और खराब राजनीति.”
अपनी बात को पुख्ता करने के लिए जेन्स ने बताया कि कैसे उन्होंने 2002 में सबसे पहली डिजिटल फिल्मों में से एक को बनाया था. उन्होंने कहा, “मैं पुराने जमाने वाला आदमी बिलकुल नहीं हूं. मैंने एक प्रयोगधर्मी ऐतिहासिक फिल्म 'द रशियन आर्क' का निर्माण किया था जिसका निर्देशन जाने माने निर्देशक अलेक्जेंडर सोकरोव ने किया था. ये पहली फिल्म थी जिसे बिना संपादन के पूरी तरह से डिजिटल रूप से शूट किया गया था. एक अजीब तरीके से ये डिजिटल में एक मील का पत्थर था, लेकिन ये एनालॉग फिल्म निर्माण के अंत की एक शुरुआत थी.”
तब उन्होंने जो किया था,15 साल बाद उन्हें उसकी भरपाई करने का मौका मिला. जेन्स ने कहा, “जो मैंने शुरू किया था उसकी भरपाई करने के लिए मुझे विचार आया कि इस फिल्म को 35 एमएम पर शूट करूं.”
उन्होंने दोहराया कि उनकी फिल्म “डिजिटल खराब है और एनालॉग अच्छा है” इस बारे में नहीं है. उन्होंने कहा, “ये संतुलन पाने के बारे में है. आप तभी संतुलन पा सकते हो जब कुछ लोग इस बात का बचाव करें कि एनालॉग अभी भी बरकरार रहे.”
हम डिजिटल डिटॉक्स कैसे कर सकते हैं? जेन्स थोड़ा उत्साह से कहते हैं, “शुक्र है कि ये समस्या हर जगह एक जैसी ही है, और इसका समाधान भी मौजूद है जो सार्वभौमिक और सरल दोनों है. बस नोटिफिकेशन बंद कर दीजिए. अपना फोन नीचे रख दीजिए. अपने घर की खिड़की से बाहर नजर दौड़ाइए और खूबसूरत चीजों को देखिए, उनकी तारीफ कीजिए. किसी को प्रेम पत्र लिखिए. इतिहास महान प्रेम पत्रों से भरा हुआ है और 40 साल बाद किसी को भी अपनी अटारी में वॉट्सएप मैसेज नहीं मिलेंगे, जैसे हमें ख़त मिला करते थे.” वे दावा करते हैं कि इस तरह से संतुलन पाना बहुत आसान है.
इस फिल्म को आधिकारिक तौर पर इस्तांबुल फिल्म फेस्टिवल और रॉटरडैम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में चुना गया था.
जेन्स म्यूरर ने सोवियत संघ, दक्षिण अफ्रीका, इजरायल और अमेरिका में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्देशन किया है और फिर ऑस्कर-नामांकित फिल्म 'द लास्ट स्टेशन' का निर्माण किया. 1995 में उन्हें उनके काम और ब्लैक पैंथर आंदोलन पर उनकी डॉक्यूमेंट्री पब्लिक एनिमी (1999) के लिए यूरोपियन एकेडमी अवॉर्ड दिया गया था जो वेनिस फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर की गई थी. 2013 में वे 'एन इम्पॉसिबल प्रोजेक्ट' (2020) जैसी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के जरिए वापस लौटे.
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