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BLOG: बलात्कार पर शोर-शराबा हमारे पाखंड की पराकाष्ठा है!

Suresh Kumar

नई दिल्‍ली 02 Oct, 2020 12:53 am

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।

मतलब...जहां स्त्री का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज और परिवार से देवता ख़ुश रहते हैं. जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कार भरा व्यवहार किया जाता है, वहां देवों की कृपा नहीं होती. वहां किये गये कार्य सफल नहीं होते.

मनु स्मृति के तीसरे अध्‍याय का ये 56वां श्लोक हिंदुस्तान की सनातन परंपरा में नारी के सम्मान की अहमियत दर्शाने वाला है. लेकिन, सनातन परंपरा के संवाहक इसी देश में एक दिन में बलात्कार के 91 मामले दर्ज किए जाते हैं. यानी हिंदुस्तान में हर घंटे रेप की औसतन चार घटनाएं होती हैं. अगर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के ये आंकड़े,135 करोड़ की आबादी वाले हिंदुस्तान का सिर शर्म से नहीं झुकाते. तो फिर, हमें सुपरपावर बनने का ख़्वाब देखना छोड़ देना चाहिए.

हमें बंद कर देना चाहिए ये कहना कि, यहां स्त्री को देवी की तरह पूजा जाता है. और लोकतांत्रिक भारत में महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा हासिल है.

हैदराबाद से लेकर हाथरस तक बलात्कार की घटनाओं पर मचने वाले हाहाकार में शोर का डेसिबल लेवल एक ही है, और ये दिखाता है कि आज़ादी के 73 बसंत देखने वाले भारत में महिलाओं की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ. इस दौरान सरकारें बदलीं, हुक्काम बदले, पार्टियां बदलीं, क़ानून बदले. मगर नहीं बदला तो महिलाओं से होने वाली अपराधों का आंकड़ा.

भौतिक जीवन से संन्यास लेने के बाद सियासत करने वाले योगी आदित्यनाथ के शासन वाला उत्तर प्रदेश हो, या अशोक गहलोत के राज वाला राजस्थान. राजनीतिक बयानों के पीछे जाकर देखिए. असली, ठोस और स्याह आंकड़े, पॉलिटिक्स की पर्देदारी का पर्दाफ़ाश कर देते हैं. बयानों की बाज़ीगरी के पीछे छुपी हक़ीक़त को बेनक़ाब कर देते हैं. सुपरपावर बनने का ख़्वाब देखने वाले इसी हिंदुस्तान में, 2016 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के 3 लाख 22 हज़ार 929 मामले दर्ज किए गए... अगले तीन बरस में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के ये मामले बढ़ कर 4 लाख 5 हज़ार 861 तक पहुंच गए. 

और, ध्यान रहे. ये आंकड़े सरकारी हैं. जो दस्तावेज़ों में दर्ज हैं. इस गिनती में वो अनगिनत अपराध शामिल नहीं हैं, जो रोज़ इसी देश के तमाम कोनों में अंजाम दिए जाते हैं. जब बेडरूम में, खेत में, जंगल में, खाली पड़े कारखानों में, चलती बसों और ट्रेनों के भीतर, महिलाओं से अपराध किए जाते हैं.

महिलाओं को भय से आज़ादी देने, बलात्कारियों को ठोक देने, अपराधियों को सख़्त सज़ा देने के तमाम सियासी दावे तब हवा हो जाते हैं, जब हमारे सामने ये आंकड़े आते हैं.

2015-16 के नेशनल हेल्थ सर्वे के मुताबिक़ 15 से 49 साल उम्र की हर तीसरी महिला को किसी न किसी तरह की शारीरिक या यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है. और इन अपराधों को अंजाम देने वाले, 90 फ़ीसद से अधिक मुजरिम वो होते हैं, जो उनकी शिकार महिलाओं के परिचित होते हैं, रिश्तेदार होते हैं, परिजन होते हैं, पड़ोसी होते हैं. यहां तक कि बाप-चाचा, भाई और बेटे भी अपनी मांओं, बहनों और अन्य रिश्तों को तार तार करने वाली हरकतों को अंजाम देते हैं.

जुर्म का ये अंतहीन सिलसिला है...

कठुआ, उन्नाव, सूरत, बारां, बुलंदशहर, हाथरस, हैदराबाद, बलरामपुर. ठिकानों के नाम बदल जाते हैं, मगर स्टोरी वही रहती है. रेप, महिलाओं और बच्चियों से हैवानियत की हर घटना के बाद ग़ुस्से का ग़ुबार उठता है. राजनीति के बयान आते हैं. पीड़ित और आरोपी के नाम, ज़ात, धर्म, समुदाय और पार्टी एफिलिएशन के हवाले से केस का चीर हरण होता है. इसके बाद हिंदुस्तान, हैवानियत की अगली घटना के इंतज़ार में आगे बढ़ जाता है. मगर ज़मीनी हालात जस के तस रहते हैं

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो कहता है कि इंडिया में हर पंद्रह मिनट में रेप का एक केस दर्ज होता है. मगर कनविक्शन रेट केवल 27 प्रतिशत है. यानी बलात्कार के सौ मामलों में से 73 प्रतिशत केस में आरोपी छूट जाते हैं. ये एक समाज के तौर पर...एक देश के तौर पर हमारी नाकामी का सबसे बड़ा सबूत है कि बलात्कार के तीन चौथाई मुजरिमों को हम सज़ा तक नहीं दिला पाते. 

ये नाकामी हमारे जुडिशियल सिस्टम की है. ये हमारी क़ानून व्यवस्था का फेल्योर है. और ये असफलता है हमारी सियासत की. एक समाज के तौर पर ये आंकड़े हमें ही आईना दिखाते हैं. ये बताते हैं कि न्यू इंडिया की सोसाइटी अपनी सोच, अपनी ज़हनियत और अपनी करतूतों में आज भी उतनी ही प्रिमिटिव है, जितनी आज से सौ दो सौ बरस पहले रही थी. 

आज हम रूल ऑफ़ लॉ की बातें करते हैं. इंसाफ़ की दुहाई देते हैं. अपराध पर शोर मचाते हैं. मगर, हमारी ज़हनियत जस की तस रहती है. महिलाओं को ऑब्जेक्टिफ़ाई करना, उन्हें जात, धर्म, समुदाय और सियासी खांचों में बांटने का सिलसिला किसी एक घटना या मुकाम पर नहीं रुकता. ये बदस्तूर जारी रहता है. लिबरल डेमोक्रेसी के ख़्वाहिशमंद होकर भी हम अपने घर परिवार और आस-पास की स्त्रियों की स्वतंत्रता तो छोड़ दीजिए, स्वायत्ता को भी पचा नहीं पाते.

नतीजा ये कि नाबालिग से बलात्कार की सज़ा फांसी भले कर दी जाए, मगर आंकड़े ये बताते हैं कि इस क़ानून के बनने के बाद, नाबालिगों से बलात्कार की तादाद बढ़ती गई है.

ये आंकड़े हमारे पाखंड का पर्दाफ़ाश करते हैं. एक सोसाइटी के तौर पर हमारी हिप्पोक्रेसी को चीर फाड़कर हमारे ही सामने रख देते हैं. ये वही सोसाइटी है, जो कहती है कि वो स्त्री को शक्ति मानकर उसकी अराधना करती है. लेकिन, हम उस पर पर्देदारी जैसी पाबंदियां लादते जाते हैं. ये हमारे समाज का दोगलापन ही है कि जिस स्त्री की पूजा करने का दावा करते हैं, उसी के साथ परिवार, रिश्तेदार, और परिचित बलात्कार करते हैं. उसे मौत के घाट उतार देते हैं.

ये हमारे ट्राइबलिज़्म का ही सबूत है कि समाज में सिर उठाकर जीने की कोशिश करने वाले समाज के कमज़ोर तबक़े की लड़कियों को बलात्कार के ज़रिए सबक़ सिखाया जाता है. जहां अपने परिवार के ऑनर के नाम पर हम दूसरे परिवारों की स्त्रियों का आत्म सम्मान छीनने की कोशिश करते हैं, उनके साथ यौन हिंसा को अंजाम देकर.

और सोसाइटी के इसी पाखंड से पैदा हुआ है हमारा पॉलिटिकल कल्चर.

इस देश में कई दशकों से एक ख़ास राजनीतिक संस्कृति चली आ रही है. महिलाओं से जुर्म होता है. और उसके बाद सरकार में बैठे दल एक आल्टरनेटिव नैरेटिव सेट करने लगते हैं. वहीं, विपक्ष में बैठे नेता, इंसाफ़ की जंग लड़ने के नाम पर एक नए राजनीतिक ड्रामे के किरदार बनकर मैदान में उतरते हैं. क्योंकि ये विपक्ष ही है, जिसकी पॉलिटिक्स ऑन स्टेक है. और, वहीं सत्ता में बैठी पार्टी अपने ऊपर आंच आने पर नैरेटिव का रुख़ दूसरी ओर मोड़ देती है. 

इस राजनीतिक ड्रामेबाज़ी से, झूठे सामाजिक विलाप से, महिलाओं से होने वाले अपराध के NCRB के असली आंकड़ों में कोई बदलाव नहीं आएगा. इसीलिए आप बलात्कार और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों को राजनीतिक ख़ेमेबाज़ी में बांटकर न देखें. राज्यों में डिवाइड करके न समझें. और, ज़ात, धर्म, समुदाय के चश्मे से भी देखने की कोशिश न करें.

ज़रूरत इस बात की है कि हम महिलाओं को लेकर अपने पाखंड की आंख में आंख डाल कर देखने का साहस जुटाएं. ख़ुद से सवाल करें कि क्या हम अपने घर में या अपने आस-पास महिलाओं को बराबरी दिलाने, उनके साथ होने वाले जुर्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने और ईमानदारी से न्याय की कोशिश कर पाते हैं. इन सवालों के सच्चे जवाब से ही, हम अपने पाखंड का प्रायश्चित कर सकेंगे.

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