आने वाले दिनों में बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाला है. बिहार की राजनीति पर पूरे देश की नजर रहती है. इस बार के चुनाव में एक बार फिर मुकाबला एनडीए और राजद की नेतृत्व वाली गठबंधन के बीच होना है. लेकिन इन सब के बीच सबकी नजर एक ऐसे राजनेता की तरफ है जिसे बिहार की राजनीति में गेम चेंजर माना जाता रहा है.
रामविलास पासवान जिन्हें राजनीति के जानकार मौसम वैज्ञानिक से लेकर कई तरह के उपमा देते रहे हैं, दलित राजनीति के प्रमुख नेताओं में से एक एवं लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक तथा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार में केन्द्रीय मंत्री हैं. रामविलास पासवान 1969 में पहली बार विधायक बने थे. उन्होंने बिहार पुलिस की नौकरी छोड़कर राजनीति के मैदान में भाग्य अजमाया था. जिसके बाद उन्होंने कभी भी राजनीति में पीछे मुड़कर नहीं देखा.
उन्होंने अपने 5 दशक के राजनीतिक जीवन में कई सरकारों को बनते और गिरते अपनी आंखों से देखा है. वीपी सिंह के प्रधानमंत्री रहने के दौरान रामविलास उनके सबसे करीबी माने जाते थे. मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करवाने के फैसले के पीछे भी रामविलास पासवान का अहम रोल माना जाता रहा है. उस दौरान वीपी सिंह राज्यसभा के सदस्य थे इसलिए रामविलास ही लोकसभा में सत्ताधारी गठबंधन के नेता भी थे.
रामविलास पासवान को बिहार का सबसे मजबूत दलित नेता माना जाता है. कांशीराम और मायावती की लोकप्रियता के दौर में भी, बिहार के दलितों के मज़बूत नेता के तौर पर लंबे समय तक टिके रहे हैं. 1996 के बाद जब बिहार में जनता दल में कई बड़े विभाजन हुए उसके बाद की राजनीति में रामविलास ने अपने आप को हमेशा राज्य की राजनीति में किंग मेकर की भूमिका में रखा. अपने स्वजातीय मतदाताओं के मतों को गठबंधन सहयोगियों की तरफ ट्रांसफर करने की क्षमता के कारण उनकी उपयोगिता हमेशा बनी रही है.
कुछ चुनावों के परिणामों पर अगर नजर डाला जाए तो रामविलास पासवान की उपयोगिता समझ में आती है. 1999 के लोकसभा चुनाव में पासवान एनडीए के साथ थे इस चुनाव में अविभाजित बिहार के 54 में से 40 सीटों पर एनडीए को जीत मिली थी. 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले गुजरात दंगों को मुद्दा बनाकर रामविलास पासवान ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था. रामविलास इस चुनाव में कांग्रेस और राजद के साथ मिलकर चुनाव में उतरे थे और इस चुनाव में एनडीए को बड़ी हार का सामना करना पड़ा था. बिहार की 40 में से 31 सीटों पर कांग्रेस, लोजपा और राजद गठबंधन ने जीत दर्ज कर ली थी.
2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में रामविलास ने राजद से गठबंधन तोड़ लिया था इस चुनाव में राजद को राज्य में हार का सामना करना पड़ा था. 6 महीने के बाद ही हुए विधानसभा के उपचुनाव में भी रामविलास ने राजद को साथ नहीं दिया और परिणाम स्वरूप राजद सत्ता से बाहर हो गयी. 2009 का लोकसभा और 2010 का विधानसभा चुनाव रामविलास के लिए अपवाद रहा जिनमें उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी. लेकिन उनके वोट प्रतिशत में कोई गिरावट नहीं देखने को मिली थी.
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जब जदयू ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया था तब बिहार में बीजेपी को रामविलास का साथ मिला था. रामविलास के साथ गठबंधन करके उतरी बीजेपी ने एक बार फिर से 70 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज कर ली. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी रामविलास का साथ एनडीए को मिला और 40 में से 39 सीटों पर एनडीए को जीत मिली.
गठबंधन करने और उससे अलग होने में रामविलास ने कभी भी परहेज नहीं किया. लेकिन हमेशा से उनके रिश्ते सभी दलों के नेताओं के साथ काफी अच्छे रहे हैं. यही कारण रहा है कि हर चुनाव से पहले पक्ष और विपक्ष उनकी तरफ आशा भरी नजर से देखता रहा है.
रामविलास पासवान ने 8 बार हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया है. इस दौरान उन्होंने अबतक छह प्रधानमंत्रियों के साथ मिलकर काम किया है. 1989 में जीत के बाद वह वीपी सिंह की कैबिनेट में पहली बार श्रम मंत्री बने थे. एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल की सरकारों में रामविलास रेलमंत्री रह चुके हैं. वर्तमान सरकार में वो खाद्य, जनवितरण और उपभोक्ता मामलों के मंत्री हैं.
वर्तमान में बीजेपी के साथ समझौते के तहत वो स्वयं असम से राज्यसभा के सांसद हैं और उनके छोटे भाई पशुपति नाथ पारस हाजीपुर से सांसद हैं. उनके पुत्र और उनकी पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान जमुई से सांसद हैं. उनके भतीजे समस्तीपुर से सांसद हैं. उनकी पार्टी लोकजनशक्ति पार्टी के लोकसभा में अभी 6 सांसद हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर सीटों के बंटवारे और अन्य मुद्दों पर हाल के दिनों में लोजपा और जदयू के बीच विवाद देखा जा रहा है. कई बार ऐसे भी कयास लगाए जा रहे हैं कि रामविलास पासवान की पार्टी गठबंधन को लेकर कुछ बड़े फैसले भी ले सकती है. लेकिन बहुत कम ही ऐसे मौके आए हैं जब रामविलास पासवान को अपने फैसलों के कारण नुकसान का सामना करना पड़ा है. कई ऐसे मौके आए जब रामविलास पासवान के कई सहयोगियों ने उनसे एक साथ रिश्ता तोड़ लिया लेकिन पासवान के वोट बैंक और उनके राजनीतिक वजूद कभी कम नहीं हुए.
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