Rama Ekadashi 2020: हिन्दू धर्म में रमा एकादशी (Rama Ekadashi) का बड़ा महात्म्य. इस एकादशी (Ekadashi) के दिन सृष्टि के पालनहार श्री हरि विष्णु की पूजा की जाती है. मान्यता है कि इस व्रत के प्रभाव से ब्रह्म हत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं. कहते हैं कि जो मनुष्य इस एकादशी के माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णु लोक यानी कि बैकुंठ धाम को प्राप्त होते हैं. इस एकादशी में मां लक्ष्मी की पूजा का भी विधान है. कहते हैं कि अगर सुहागिन महिलाएं इस एकादशी का व्रत करें तो घर में सुख-समृद्धि और सौभाग्य आता है.
रमा एकादशी कब मनाई जाती है?
हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष एकादशी को रमा एकादशी कहते हैं. यह दीपवली से तीन दिन पहले और धनतेरस से दो दिन पहले पड़ती है. ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार रमा एकादशी हर साल अक्टूबर या नवंबर के महीने में आती है. इस बार रमा एकादशी 11 नवंबर को है.
रमा एकादशी की तिथि और शुभ मुहूर्त
रमा एकादशी की तिथि: 11 नवंबर 2020
एकादशी तिथि प्रारंभ: 11 नवंबर 2020 को सुबह 3 बजकर 22 मिनट से
एकादशी तिथि समाप्त: 12 नवंबर 2020 को सुबह 12 बजकर 40 मिनट तक
पारण का समय: 12 नवंबर 2020 को सुबह 6 बजकर 42 मिनट से सुबह 8 बजकर 51 मिनट तक
रमा एकादशी की पूजा विधि
अगर आप रमा एकादशी का व्रत करना चाहते हैं तो दशमी यानी कि एक दिन पहले से ही व्रत के नियमों का पालन करें.
- दशमी के दिन कांसे की थाली या बर्तन में जौ और चावल से बना भोजन ग्रहण करें और नमक न खाएं.
- दशमी को जमीन पर सोएं और ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करें.
- एकादशी के दिन सुबह-सवेरे उठकर शौच से निवृत्त हो जाएं.
- अब स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें.
- इसके बाद घर के मंदिर में आसन ग्रहण कर हाथ जोड़ें और मन ही मन व्रत का संकल्प लें.
- अब एक चौकी पर भगवान का आसन लगाएं और उस पर गेहूं की ढेरी रखें.
- एक कलश में जल भरकर उसे गेहूं की ढेरी के ऊपर रखें.
- कलश पर पान के पत्ते लगाकर नारियल रखें.
- अब श्रीहरि विष्णु व मां लक्ष्मी की मूर्ति या फोटो में गंगाजल छिड़कें.
- अब उन्हें वस्त्र अर्पित कर तिलक व अक्षत लगाएं.
- अब श्री हरि विष्णु और मां लक्ष्मी को फूलों की माला पहनाएं.
- फिर उन्हें फूल, ऋतु फल और तुलसी दल अर्पित करें.
- अब ध़ूप, दीप, गंध, पुष्प, नैवेद्य से भगवान का पूजन करें.
- दिन भर उपवास रखें.
- शाम के समय विधि-विधान से आरती उतारें और व्रत कथा पढ़ें या सुनें.
- अब विष्णु जी व मां लक्ष्मी को भोग लगाएं और परिवार के सभी सदस्यों में प्रसाद वितरित करें.
- रात्रि में फलाहार ग्रहण करें. रात्रि जागरण कर भगवद् भजन गाएं.
- अगले दिन यानी कि द्वादश को किसी ब्राह्मण को भोजन कराएं और यथाशक्ति दान देकर प्रणाम करें व विदा करें.
- स्थापित किए गए कलश के जल को अपने घर में छिड़क दें. बचे हुए जल को किसी पौधे या तुलसी में चढ़ा दें.
- इसके भोजन ग्रहण कर व्रत का पारण करें.
रमा एकादशी व्रत कथा
रमा एकादशी की पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था. उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे. यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था. उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था. उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था. एक समय वह शोभन ससुराल आया. उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी रमा एकादशी रमा भी आने वाली थी.
जब व्रत का दिन पास आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि "मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है." दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए. ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई औ अपनी पत्नी से कहा कि "हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूंगा. ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएंगे."
चंद्रभागा कहने लगी कि "हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता. हाथी, घोड़ा, ऊंट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है. यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा." ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि "हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूंगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा."
इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा. जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ. प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए. तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया. परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी.
रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ. वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चंवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराअओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो.
एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर का कि "यह तो राजा का जमाई शोभन है." वह उसके निकट गया. शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया. ब्राह्मण ने कहा कि "राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं. नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है. आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ."
तब शोभन बोला कि "कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है. यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए." ब्राह्मण कहने लगा कि "हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूंगा. मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए. शोभन ने कहा कि "मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है. अत: यह सब कुछ अस्थिर है. यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है."
ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया. ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि "हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं." ब्राह्मण कहने लगा कि "हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है. साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है. उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है. जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए."
चंद्रभागा कहने लगी "हे विप्र! तुम मुझे वहां ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है. मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूंगी. आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है." सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया. वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया. तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई.
इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई. अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया. चंद्रभागा कहने लगी कि "हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए. अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूं. इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा." इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी.
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