प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इमाम हुसैन की शहादत को याद किया. इस्लामी कैलेंडर के सबसे पवित्र महीने मोहर्रम के दसवें दिन यौम-ए-अशूरा के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए कहा कि हज़रत इमाम हुसैन के लिए सत्य और न्याय से बड़ा कुछ भी नहीं था. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि समानता और निष्पक्षता पर उनका जोर उल्लेखनीय है और बहुतों को ताकत देता है.
We recall the sacrifice of Imam Hussain (AS). For him, there was nothing more important than the values of truth and justice. His emphasis on equality as well as fairness are noteworthy and give strength to many.
— Narendra Modi (@narendramodi) August 30, 2020
कोरोना काल में इस साल मोहर्रम का जुलूस नहीं निकाला जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस साल जुलूस पर पाबंदी लगा दी गई है. वैसे हर साल ये जुलूस बड़ी शान-ओ-शौकत के साथ देशभर में निकाला जाता है जिसमें मर्द, औरतें और बच्चे भी शामिल होते हैं. सभी या हुसैन-या हुसैन के नारे लगाते हुए, छाती पीटते हुए और छुरी चाकुओं से ख़ुद को ज़ख़्मी करते हुए स्थानीय कर्बला तक जाते हैं. आम तौर से माना जाता है कि मोहर्रम का मातम शिया और सुन्नी दोनों मनाते हैं. लेकिन दोनों का तरीक़ा अलग है.
इस्लामी कैलेंडर के सबसे पवित्र महीने मोहर्रम के दसवें दिन यौम-ए-अशूरा के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि हज़रत इमाम हुसैन के लिए सत्य और न्याय से बड़ा कुछ भी नहीं था। #Muharram pic.twitter.com/BFPzxbQap4
— आकाशवाणी समाचार (@AIRNewsHindi) August 30, 2020
मोहर्रम क्या है? मातम क्यों और किसकी याद में होता है? और, शिया-सुन्नी के बीच इस मसले पर विभेद और टकराव क्यों है?
मोहर्रम इस्लामिक हिजरी कैलेंडर का पहला महीना है. और इस महीने की 10 तारीख़ सबसे ख़ास है. इस दिन को यौम-ए-आशुरा के नाम से भी जाना जाता है. इसी दिन पैग़म्बर-ए-इस्लाम हज़रत मोहम्मद के नाती, हज़रत इमाम हुसैन की यज़ीद के साथ कर्बला में जंग हुई थी.
कर्बला इराक़ के शहर बग़दाद में हैं. इसी शहर में इमाम हुसैन का मक़बरा भी है. शिया मुसलमानों के लिए ये जगह मक्का और मदीना के बाद दूसरी सबसे अहम जगह है. तमाम इस्लामिक जंगों में कर्बला की जंग सबसे अलग है. क्योंकि इस जंग में इमाम हुसैन अपने साथियों और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ इस्लाम की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे.
सबसे पहले ये समझिए कि इमाम हुसैन थे कौन. हुसैन, पैगम्बर मोहम्मद की बेटी बीबी फ़ातिमा के बेटे थे और सुन्नी मुसमानों के चौथे ख़लीफ़ा और शिया मुसलमानों के पहले इमाम कहे जाने वाले हज़रत अली के बेटे थे. कर्बला में ये जंग इमाम हुसैन और यज़ीद के बीच हुई थी. यज़ीद चाहता था कि सब-कुछ वैसा ही चले जैसा वो चाहता है. वो ख़ुद को ख़लीफ़ा मानता था और इस्लाम को अपने मुताबिक़ इस्लाम चलाना चाहता था. जबकि, इमाम हुसैन वो दीन-ए-इस्लाम चाहते थे, जो उनके नाना यानी पैग़म्बर मोहम्मद ने चलाया था.
यज़ीद इमाम हुसैन से अपनी बात मनवाने के लिए समझौता करना चाहता था कि वो इस्लाम की बात ना करें. बल्कि, उसका कहा मान लें. जैसा वो चाहता है वैसा करें और बाक़ी अनुयायियों को भी उसकी बात पर अमल करने को राज़ी करें. लेकिन, इमाम हुसैन ने इससे साफ़ इंकार कर दिया. उन्होंने कह दिया कि वो कुरान की ही बात करेंगे. जिसके मुताबिक़, अल्लाह एक है और मोहम्मद सहब उसके आख़िरी पैग़म्बर हैं. यही सच है और यही सबको मानना होगा. जब इमाम हुसैन यज़ीद के आगे किसी सूरत नहीं झुके. तो, यज़ीद ने इमाम हुसैन को धोखे से कर्बला बुलाया. उसने कहा कि हमारे यहां इमाम की ज़रूरत है. आप यहां आकर इमामत कीजिए और इस्लाम का पाठ लोगों को दीजिए. यज़ीद के इस दावतनामे को पाकर हुसैन अपने छोटे से लश्कर के साथ कूफ़ा से कर्बला के लिए रवाना हुए और मोहर्म की 2 तारीख को कर्बला पहुंचे. हुसैन के लश्कर में औरतें और बच्चे भी शामिल थे. लेकिन, उनके कर्बला पहुंचते ही यज़ीद ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया. यज़ीद ने हुसैन से अपनी बात मनवाने के लिए उन्हें तरह-तरह से परेशान करना शुरू कर दिया. यहां तक कि 7 मोहर्रम को हुसैन के लश्कर के लिए पानी बंद करा दिया गया. पूरा लश्कर प्यास से तड़प रहा था. लेकिन, उन्हें पानी की एक बूंद तक मुहैया नहीं कराई गई. वो हर हाल में हुसैन को अपने अधीन करना चाहता था.पर, हुसैन किसी भी हाल में राज़ी ना हुए.
जब यज़ीद बुरी तरह खीझ गया तो उसने जंग का प्रस्ताव रख दिया जिसे हुसैन ने खुशी से स्वीकार कर लिया. 9 मोहर्रम की रात इमाम हुसैन ने अपने लश्कर में अंधेरा कर सभी साथियों से कहा, ‘मैं अपने साथियों को किसी से कम नहीं समझता. मुझे अपने साथियों पर पूरा भरोसा है. फिर भी हमारा दुश्मन कहीं ज़्यादा ताक़तवर है. उसके पास हम से ज़्यादा बल, सेना और जंगी हथियार हैं. उनसे मुक़ाबला आसान नहीं होगा. जान बचाना बहुत ही मुश्किल है. लिहाज़ा मैं आप सभी को अपनी ख़ुशी से जाने की इजाज़त देता हूं. आप सभी मेरे कहने पर यहां आए लेकिन मैं आपकी जान ख़तरे में नहीं डाल सकता. अंधेरा इसलिए किया, ताकि आपको मेरे सामने जाने में हिचक महसूस ना हो. इस अंधेरे में आप आसानी से निकल सकते हैं. यज़ीद की फ़ौज मेरी दुश्मन और ख़ून की प्यासी है. जो मेरा साथ छोड़कर जाएगा वो उसे कुछ नहीं कहेंगे.’
इसके बाद हुसैन ने ख़ेमे में फिर से रोशनी कर दी. लेकिन, उनका एक भी साथी अपनी जगह से नहीं हिला. 10 मोहर्रम की सुबह, जब इमाम हुसैन नमाज़ पढ़ रहे थे, तभी यज़ीद की सेना ने तीरों की बरसात शुरू कर दी. जिन्हें हुसैन के साथियों ने अपने सीने पर खाया. नमाज़ पूरी करने के बाद हुसैन ने मोर्चा संभाला और बड़ी दिलेरी से मुक़ाबला किया. दिन ढलने तक हुसैन की तरफ़ से 72 शहीद हो चुके थे. इन शहीदों में हुसैन के अलावा उनके 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर, और 7 साल के उनके भतीजे क़ासिम भी शामिल थे. इसके अलावा हुसैन के बहुत से दोस्त और रिश्तेदार भी कर्बला की जंग में शहीद हो गए. कहा जाता है कि जिस ख़ंजर से हुसैन का सिर धड़ से अलग किया गया था वो ख़ंजर कुंद धार का था. हुसैन को बहुत तकलीफ़ देकर क़त्ल किया गया था. और ये सब उनकी बहन ज़ैनब के सामने हुआ था. हुसैन की शहादत के बाद बीबी ज़ैनब ने ही बाक़ी लोगों को संभाला था. बाक़ी बचे सभी लोगों को यज़ीद ने बंधक बनाकर जेल में डाल दिया था.
इसी जंग और शहादत की याद में हर साल मोहर्रम का मातम मानाया जाता है, आंसू बहाए जाते हैं और जुलूस निकाला जाता है. मातम के ज़रिए वो दुनिया के सामने उन ज़ुल्मों की दास्तान रखते हैं जो इमाम हुसैन और उनके परिवार, रिश्तदार और दोस्तों ने झेले थे. इन दस दिनों तक कोई भी शुभ काम नहीं किया जाता. शिया मुसलमान काले कपड़े पहनते हैं और बहुत सादा खाना खाते हैं. दस दिनों तक इमामबाड़ों में मजलिसें होती हैं, जहां नौहाख़्वानी की जाती है. यानी, इमाम हुसैन और उनके साथियों की याद में शोकगीत गाए जाते हैं.
मजलिसों में इमाम हुसैन और उनके लश्कर द्वारा उठाई गई मुश्किलों का बखान करके आंसू बहाते हैं. महिलाएं छाती पीटकर मातम करती हैं. मर्द चाकू-छुरियों से ख़ुद को लहूलुहान करते हैं. सीने पर ब्लेड मारते हैं. सिर पर तलवार मारते हैं. कमर पर खंजर मारते हैं. इसमें बच्चे भी शामिल होते हैं. बच्चों के लिए अलग से उनके साइज़ के मुताबिक़ छुरियां बनवाई जाती हैं. हालांकि ख़ूनी मातम में बच्चों के शामिल होने पर बहुत से लोग ऐतराज़ जताते हैं.
उनके मुताबिक़ ये बच्चों की सेफ्टी का सवाल है. लेकिन शिया समुदाय के लोगों का कहना है कि ये ज़ख्म केवल गुलाब जल लगाने भर से ही ठीक हो जाते हैं. 14 सौ साल से मातम का ये सिलसिला चल रहा है लेकिन, आज तक मातम की वजह से किसी की मौत नहीं हुई.
कर्बला के शहीदों को शिया और सुन्नी दोनों ही ग़म में डूबकर याद करते हैं. लेकिन तरीक़ा अलग-अलग है. शिया जहां मातम और जुलूस निकालते हैं. वहीं सुन्नी मुसलमान नौ और दस या फिर दस और ग्यारह मुहर्रम के रोज़े रखते हैं. क़ुरान की तिलावत करते हैं. ग़रीबों को खाना दान करते हैं. उनका मानना है कि रोज़ा रखकर वो उस भूख और प्यास की तलब महसूस कर पाते हैं जो इमाम हुसैन और उनके साथियों ने महसूस की थी.
बहुत से लोगों के ज़हन में सवाल उठता है कि जब शिया और सुन्नी दोनों एक ही अल्लाह, एक ही क़ुरान और पैग़म्बर मोहम्मद में विश्वास रखते हैं, और इस्लाम की लगभग सभी बातों पर भी सहमत हैं, तो फिर झगड़ा किस बात का है? दोनों समुदाय अलग क्यों हैं?
ये पूरा झगड़ा नेतृत्व को लेकर है. 632 ईस्वी में पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद सवाल उठा कि ख़लीफ़ा किसे बनाया जाए. ज़्यादातर लोग पैग़म्बर मोहम्मद के क़रीबी अबु बकर को ये ज़िम्मेदारी सौंपने के पक्ष में थे. जबकि एक धड़ा ऐसा था जो पैग़म्बर मोहम्मद के दामाद हज़रत अली को ख़लीफ़ा बनाने का पक्षधर था. इस धड़े का मामना था कि पैग़म्बर मोहम्मद ने अली को मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक और धार्मिक लीडर के तौर पर चुना था. जिन लोगों ने अबू बकर में भरोसा जताया वो सुन्नी कहलाए और जिन्होंने अली में भरासा जताया वो शिया कहलाए. अबु बकर पहले ख़लीफ़ा बने और अली चौथे. हालांकि अली की लीडरशिप को पैग़म्बर मुहम्मद साहब की पत्नी और अबु बकर की बेटी आयशा ने चुनौती दी. दोनों के बीच इराक़ के शहर बसरा में 656 ईस्वी में युद्ध हुआ.
आयशा इस जंग में हार गईं और शिया-सुन्नी के बीच की खाई और गहरी हो गई. शिया मुसलमान मानते हैं कि पैग़म्बर का परिवार ही उनका असली लीडर है. जबकि सुन्नी मुसलमान सेक्युलर लीडरशिप को मानते हैं. इसीलिए उन्होंने उमैयद ख़लीफ़ाओं पर भरोसा जताया.
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