किसान आंदोलन ने 26 जनवरी तक का अपना कार्यक्रम घोषित कर दिया है. इसका मतलब है कि कम से कम 26 जनवरी तक तो यह आंदोलन चलने ही वाला है. 27 नवंबर से किसान संगठनों ने, पुलिस द्वारा रोके जाने के बाद, दिल्ली की सीमा पर डेरा डाल हुआ है. उन रास्तों से दिल्ली का आवागमन बंद है. आंदोलन के समर्थन में अबतक दो लोगों ने आत्महत्या कर लिया है. लगभग 50 आंदोलनकारी मौत के शिकार हो चुके हैं.
रिकॉर्ड तोड़ ठंड भी किसानों की सहनशक्ति की परीक्षा ले रही है. बताया जा रहा है कि सन 61 के बाद लगातार इतना लंबा शीतलहर इसी वर्ष चला. पहली जनवरी को तो तापमान 1 डिग्री पर आ गया था. लेकिन ऐसा कठोर मौसम भी किसानों की संकल्प शक्ति को डिगा नहीं पाया है. आजादी के बाद देश में ऐसा आंदोलन देखा नहीं गया था. अभी तक आंदोलन में ऐसी कोई चुक नहीं हुई है जिससे किसी को उस पर उंगली उठाने का मौका मिल सके. यही इस आंदोलन को विशिष्ट बनाता है.
दूसरी ओर सरकार ने या यूं कहें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसको अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है. लेकिन प्रश्न है कि कृषि क्षेत्र में इतने व्यापक परिवर्तन करने वाले क़ानूनों को बनाने के लिए आपने ऐसी हड़बड़ी क्यों दिखाई! जब हम कृषि की बात करते हैं तो इसका मतलब है कि इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगे देश के 70 करोड़ लोगों की बात कर रहे हैं. इतनी बड़ी आबादी की पुरानी व्यवस्था को बदल देने वाले कानून को बनाने के पहले उस पर व्यापक चर्चा की जरूरत कैसे नहीं महसूस की गई!
हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार कृषि का क्षेत्र राज्यों की अधिकार सूचि में आता है. लेकिन राज्य सरकारों से किसी प्रकार की राय मशविरा नहीं की गई. न ही किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों से ही बात की गई. सर्वप्रथम इन कानूनों के लिए अध्यादेश लाया गया. अध्यादेश की व्यवस्था हमारे संविधान में आपात स्थिति के लिए किया गया है. जब संसद और विधान सभाओं का सत्र नहीं चल रहा हो और अचानक ऐसी परिस्थिति आ जाए जिसके लिए क़ानून बनाना ज़रूरी हो तो वैसी परिस्थिति के लिए अध्यादेश का प्रावधान हमारे संविधान में किया गया है. लेकिन कृषि कानूनों को बनाने के लिए आपात स्थिति के अधिकारों का प्रयोग क्यों किया गया यह समझ के बाहर है.संसद में भी प्रचंड बहुमत के जोर पर बाकी लोगों की बात को अनसुनी करते हुए आनन-फानन में इसको कानूनी रूप दे दिया गया.
किसान आरोप लगा रहे हैं कि हमें प्रधानमंत्री जी की बातों पर यकीन नहीं है. यकीन हो भी तो कैसे! अभी तक प्रधानमंत्री जी ने जो भी महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं उन सब फैसलों को लेते समय उन्होंने अच्छे दिन का सपना दिखाया था. लेकिन उनका नतीजा क्या निकला हम सबके सामने है . याद करें, नोटबंदी का ऐलान करते समय प्रधानमंत्री जी ने क्या कहा था? काला धन खत्म हो जाएगा. आतंकवाद और माओवाद जनित हिंसा समाप्त हो जाएगी. जाली नोट समाप्त हो जाएंगे. लेकिन नतीजा क्या हुआ? जीएसटी के मामले में क्या क्या नहीं दावा किया गया था. उसका भी नतीजा सामने दिखाई दे रहा है.
इसी तरह कृषि कानूनों के विषय में भी प्रधानमंत्री जी दावा कर रहे हैं. लेकिन इस बार किसान उस दावे पर यकीन करने के लिए तैयार नहीं है. जिस तरह का माहौल बना हुआ है उससे लग रहा है कि इस आंदोलन को दबाने के लिए सरकार को दमन का ही सहारा लेना पड़ेगा और वह दमन क्रूर होगा. इसलिए प्रधानमंत्री जी से हम नम्रता पूर्वक अनुरोध करेंगे कि इस आंदोलन को बदनाम करने के अभियान पर रोक लगाइए. ध्यान रखिए लोकतंत्र को तानाशाही मानसिकता और मिजाज से नहीं चलाया जा सकता है. आप लोकतांत्रिक मिजाज का परिचय दीजिए और किसान कानून को वापस लेकर सब को भरोसा में लेकर नए ढंग से इस दिशा में आगे बढिए.
(शिवानंद तिवारी राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता एवं पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.)
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