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Saphala Ekadashi 2020: सफला एकादशी की तिथि, शुभ मुहूर्त, पूजा विधि, व्रत कथा और महत्‍व

Babita Pant

नई द‍िल्‍ली 07 Jan, 2021 02:27 pm

Saphala Ekadashi 2020: सफला एकादशी (Saphala Ekadashi) का हिन्‍दू धर्म में बड़ा महात्‍म्‍य है. इस एकादशी (Ekadashi) में श्री नारायण और मां लक्ष्‍मी की पूजा का विधान है. अपने नाम के अनुरूप ही यह एकादशी फलदायिनी, शुभदायिनी और मोक्षदायिनी है. हिन्‍दू मान्‍यताओं के अनुसार सफला एकादशी की व्रत कथा पढ़ने या सुनने मात्र से ही भक्‍त को अश्‍वमेध यज्ञ के बराबर फल की प्राप्‍ति होती है. 

सफला एकादशी कब है?
हिन्‍दू पंचांग के अनुसार पौष कृष्‍ण एकादशी को सफला एकादशी कहते हैं. ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार यह एकादशी हर साल जनवरी के महीने में आती है. इस बार सफला एकादशी 9 जनवरी को है.

सफला एकादशी की तिथि और शुभ मुहूर्त
सफला एकादशी की तिथि:
9 जनवरी 2021
एकादशी तिथि प्रारंभ: 8 जनवरी 2021 को रात 9 बजकर 40 मिनट से
एकादशी तिथि समाप्‍त: 9 जनवरी 2021 शाम 7 बजकर 17 मिनट तक
पारण का समय: 10 जनवरी 2021 को सुबह 7 बजकर 15 मिनट से सुबह 9 बजकर 21 मिनट तक

सफला एकादशी का महत्‍व
हिन्‍दू धर्म में सफला एकादशी का विशेष महत्‍व है. इस दिन भगवान श्री नारायण की विधिपूर्वक पूजा का विधान है. इस एकादशी का व्रत अपने नाम के अनुसार ही मनवांछित फल प्रदान करने वाला है. मान्‍यता है कि इस एकादशी के प्रभाव से भक्‍त को जीवन में उत्तम फल की प्राप्‍ति होती है. यही नहीं भक्‍त जीवन का सुख भोगकर मृत्‍यु के बाद विष्‍णु के परम धाम बैकुंठ लोक को प्राप्‍त होते हैं.

सफला एकादशी की पूजा विधि
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एकादशी के दिन सुबह-सवेरे उठकर स्‍नान करें और स्‍वच्‍छ वस्‍त्र धारण करें.
- अब घर के मंदिर में आसन ग्रहण कर हाथ में लें और व्रत का संकल्‍प लें.
- अब गंगाजल, पंचामृत, फूल-फल और धूप-दीप सहित लक्ष्‍मी-नारायण की पूजा करें.
- सफला एकादशी की व्रत कथा पढ़ें या सुनें.
- अब लक्ष्‍मी-नारायण की आरती उतारें.
- भगवान को भोग लगाएं.
- संध्‍या काल में दीप दान कर फलाहार करें.
- रात्रि में भगवद् भजन करते हुए जागरण करें.
- अगले दिन द्वादश को किसी ब्राहृमण को भोजन कराएं और दान-दक्षिणा देकर विदा करें.
- फिर आप स्‍वयं भी भोजन ग्रहण कर व्रत का पारण करें.

सफला एकादशी व्रत कथा
चम्पावती नगरी में एक महिष्मान नाम का राजा राज्य करता था. उसके चार पुत्र थे. उन सबमें लुम्पक नाम वाला बड़ा राजपुत्र महापापी था. वह पापी सदा परस्त्री और वेश्यागमन तथा दूसरे बुरे कामों में अपने पिता का धन नष्ट किया करता था. सदैव ही देवता, बाह्मण, वैष्णवों की निंदा किया करता था. जब राजा को अपने बड़े पुत्र के ऐसे कुकर्मों का पता चला तो उन्होंने उसे अपने राज्य से निकाल दिया. तब वह विचारने लगा कि कहां जाऊं? क्या करूं?

अंत में उसने चोरी करने का निश्चय किया. दिन में वह वन में रहता और रात्रि को अपने पिता की नगरी में चोरी करता तथा प्रजा को तंग करने और उन्हें मारने का कुकर्म करता. कुछ समय पश्चात सारी नगरी भयभीत हो गई. वह वन में रहकर पशु आदि को मारकर खाने लगा. नागरिक और राज्य के कर्मचारी उसे पकड़ लेते किंतु राजा के भय से छोड़ देते.

वन के एक अतिप्राचीन विशाल पीपल का वृक्ष था. लोग उसकी भगवान के समान पूजा करते थे. उसी वृक्ष के नीचे वह महापापी लुम्पक रहा करता था. इस वन को लोग देवताओं की क्रीड़ास्थली मानते थे. कुछ समय पश्चात पौष कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन वह वस्त्रहीन होने के कारण शीत के चलते सारी रात्रि सो नहीं सका. उसके हाथ-पैर अकड़ गए.

सूर्योदय होते-होते वह मूर्छित हो गया. दूसरे दिन एकादशी को मध्याह्न के समय सूर्य की गर्मी पाकर उसकी मूर्छा दूर हुई. गिरता-पड़ता वह भोजन की तलाश में निकला. पशुओं को मारने में वह समर्थ नहीं था अत: पेड़ों के नीचे गिर हुए फल उठाकर वापस उसी पीपल वृक्ष के नीचे आ गया. उस समय तक भगवान सूर्य अस्त हो चुके थे. वृक्ष के नीचे फल रखकर कहने लगा- हे भगवन! अब आपके ही अर्पण है ये फल. आप ही तृप्त हो जाइए. उस रात्रि को दु:ख के कारण रात्रि को भी नींद नहीं आई.

उसके इस उपवास और जागरण से भगवान अत्यंत प्रसन्न हो गए और उसके सारे पाप नष्ट हो गए. दूसरे दिन प्रात: एक अतिसुंदर घोड़ा अनेक सुंदर वस्तुओं से सजा हुआ उसके सामने आकर खड़ा हो गया.

उसी समय आकाशवाणी हुई कि हे राजपुत्र! श्रीनारायण की कृपा से तेरे पाप नष्ट हो गए. अब तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त कर. ऐसी वाणी सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ और दिव्य वस्त्र धारण करके 'भगवान आपकी जय हो' कहकर अपने पिता के पास गया. उसके पिता ने प्रसन्न होकर उसे समस्त राज्य का भार सौंप दिया और वन का रास्ता लिया.

अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा. उसकी स्त्री, पुत्र आदि सारा कुटुम्ब भगवान नारायण का परम भक्त हो गया. वृद्ध होने पर वह भी अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर वन में तपस्या करने चला गया और अंत समय में वैकुंठ को प्राप्त हुआ.

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