बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव बिहार की राजनीति का वो चेहरा हैं जिनको याद किए बिना विपक्ष की राजनीति नहीं होती. अखबार के पन्नों पर जो सुर्खियां बनती है वो भी और सोशल मीडिया पर जो संदेश दिए जाते हैं, वो भी अधूरा ही रहता है अगर लालू प्रसाद को याद न किया जाए तो. आने वाले समय में बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाला है. यह लगातार 7वां चुनाव होगा जिसमें मुकाबला लालू प्रसाद और उनकी पार्टी बनाम अन्य दलों के बीच होगा.
1990 में रामसुंदर दास और रघुनाथ झा को जनता दल की राजनीति में पछाड़ कर मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद ने बिहार की राजनीति में एक ऐसा आधार तैयार कर लिया जिसे चुनाव में हार तो कई बार मिली है लेकिन वोट प्रतिशत में बहुत अधिक गिरावट नहीं देखी गयी है. जेपी आंदोलन के दौरान पटना में आंदोलन का नेतृत्व करने वाले लालू प्रसाद ने मंडल राजनीति की शुरुआत के साथ ही अपनी राजनीतिक जमीन को काफी मजबूत कर लिया.
10 मार्च 1990 को लालू प्रसाद पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. मुख्यमंत्री बनने के 6 महीने बाद ही उन्होंने 23 अक्टूबर 1990 को केंद्र में उनकी ही पार्टी के सरकार की सहयोगी पार्टी बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया. उनके इस कदम से केंद्र की सरकार तो गिर गयी लेकिन उन्होंने बिहार में अल्पसंख्यक समुदाय का दिल जीत लिया. इस घटना के 30 साल बाद भी मुस्लिम मतों का एक बहुत बड़ा हिस्सा लालू प्रसाद के साथ बना हुआ है.
लालू प्रसाद राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी रहे हैं. जब राम मंदिर आंदोलन को आडवाणी तेज कर रहे थे तब ही उन्होंने 21 अक्टूबर 1990 को पटना के गांधी मैदान में एक सभा कर यादव पहचान की बात को राजनीतिक मुद्दा बना दिया था. उन्होंने अपने सांप्रदायिकता विरोधी रैली में कहा था, ‘कृष्ण के इतिहास को दबाने के लिए ही आडवाणी राम को सामने ला रहे हैं.’ उनकी इस राजनीति का असर यह हुआ कि बिहार में यादव और मुस्लिम उनके साथ आ गए जो अब तक उनके आधार वोटर हैं. इन दोनों समुदाय के मतों का प्रतिशत 30 से भी अधिक है.
कैडर आधारित पार्टी नहीं होने के बाद भी उन्होंने बिहार के लगभग हर गांव में अपने साथ लोगों को जोड़ लिया. बिहार में फैले जातिगत विषमता का प्रयोग उन्होंने अपनी राजनीति को मजबूत करने में किया और उनके नारे और भाषण का यह प्रभाव हुआ कि समाज से प्रभुत्व वर्ग से नाराज लोग उनके साथ जुड़ते चले गए.
वाम दलों के आधार वोट में लालू प्रसाद ने कई बार गठबंधन कर के सेंध लगा दी. लालू प्रसाद के राजनीतिक उदय से पहले तक बिहार में वाम दल 3 से 4 दर्जन सीटों पर निर्णायक हालत में हुआ करते थे.
बिहार की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि गुजरात या महाराष्ट्र की तरह विकास कर पाना संभव नहीं है. लालू प्रसाद विकास के मुद्दे पर पिछड़ते रहे लेकिन उनके राजनीतिक विरोधी ने भी उनकी तुलना में बहुत बेहतर काम कर के नहीं दिखाया है.
यूपीए वन की सरकार के दौरान केंद्र में लालू प्रसाद रेल मंत्री थे और उनकी ही पार्टी के रघुवंश प्रसाद सिंह भूतल परिवहन मंत्री बनाए गए थे. इस दौर में बिहार में सड़कों का जाल बिछाया गया. रेलवे की तरफ से भी कई योजना बिहार के लिए बने थे.
लेकिन अब तक 2019 के लोकसभा चुनाव को छोड़कर जितने भी चुनाव हुए थे उसमें लालू प्रसाद ने स्वयं मोर्चा संभाला था. 2019 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद जेल में थे. उस चुनाव में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी, हालांकि वोट प्रतिशत में अधिक कमी नहीं देखी गयी थी. अब इस विधानसभा चुनाव में यह देखना रोचक होगा कि लालू प्रसाद का जादू अब भी बिहार की राजनीति में कायम है या फिर वो अब इतिहास बन गए हैं.
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